ट्रैफिक जाम
------------
रोज सुबह हो
या शाम चौराहों पे
दिखाई देता है
ट्रैफिक जाम
किसी को हँसाती तो
किसी को रुलाती है,
जो खाली हैं उनका
समय व्यतीत कराती है,
काम पे जाने वाला लेता है
तब ईश्वर का नाम,
देख लेता है जब वो
ट्रैफिक जाम
कोई है सुट-बूट में
तो कोई है फटेहाल,
कोई है पैदल
तो कोई है गाडी में सवार,
बस में खडा है
मध्यवर्गी ,
कैसा है इस ट्रैफिक का
बुरा हाल
फैले हुये है दो हॉथ
अन्तर बस इतना है,
एक कि आँखो में दीनता
तो दूजा गौरव से
भरपूर है,
क्या ट्रैफिक जाम
यहीं से शुरु है
दोनों के गालों पे है
पानीं की कुछ बूँदे,
एक सुखा रहा है
चला कर ए सी,
तो मिटा रहा है इसे
कोई खा कर रुखी सूखी,
अरे भाई आखिर कब
खत्म होगा ये
ट्रैफिक जाम
एक और द्रश्य
दिखायी पड रहा है,
लगता तो कोई
मज़नू का भाई है
और लैला,
ओफ! इस ट्रैफिक
जाम को क्या अभी
खत्म होना था ?
वो हॅसीन शंमा अब
पीछे छूट गया था
-अमित कुमार सिंह
Friday, March 30, 2007
Friday, March 23, 2007
मटियावो ना..
मटियावो ना..
-----------
मटियावो ना का
मंतरजब से है जाना,
भोलू जी के जीवन में
आया नया तराना
पहले लगे रहते थे
आफिस में देर तक,
करने में बासॅ को खुश
अब सोंचते हैं क्या फायदा,
चलो मटियावो ना
घर अब जल्दी जाओ ना
देख शोरुम में समानों को
जब जेब पर पडा जोर,
मटियावो ना के शोर ने
कर दिया भोलू जी
को भाव-विभोर
एक बार चल रहि थी
गरमा गरम बहस,
हो रहे थे बडे-बडे दावे,
पीछे हटने को कोई
न था तैयार,
उलझ गये थे
जब सारे तार,
तब भोलू जी ने
कि एक शुरुवात,
फिर प्रसन्न मन
लगाने लगे सभी,
मटियावो ना का
नारा बार बार
मंहगा टिकट लेकर
भोलू जी एक बार
गये मल्टिप्लेक्स में,
दिल में था बडा जोश,
मगर फिल्म नें किया बोर
हुआ उन्हे बडा अफसोस,
तब मटियवो ना कहकर
किया उन्होने सन्तोष
पढ कर जब ये कविता
पाठकों ने नही दिया
कोई टिप्पणी,
कवि के दिल में
हुयी 'अमित' बेचैनी,
आने लगा एक
'स्नेह' ख्याल,
चलो छोडों ना ...
अरे मटियावो ना ...
--अमित कुमार सिंह
-----------
मटियावो ना का
मंतरजब से है जाना,
भोलू जी के जीवन में
आया नया तराना
पहले लगे रहते थे
आफिस में देर तक,
करने में बासॅ को खुश
अब सोंचते हैं क्या फायदा,
चलो मटियावो ना
घर अब जल्दी जाओ ना
देख शोरुम में समानों को
जब जेब पर पडा जोर,
मटियावो ना के शोर ने
कर दिया भोलू जी
को भाव-विभोर
एक बार चल रहि थी
गरमा गरम बहस,
हो रहे थे बडे-बडे दावे,
पीछे हटने को कोई
न था तैयार,
उलझ गये थे
जब सारे तार,
तब भोलू जी ने
कि एक शुरुवात,
फिर प्रसन्न मन
लगाने लगे सभी,
मटियावो ना का
नारा बार बार
मंहगा टिकट लेकर
भोलू जी एक बार
गये मल्टिप्लेक्स में,
दिल में था बडा जोश,
मगर फिल्म नें किया बोर
हुआ उन्हे बडा अफसोस,
तब मटियवो ना कहकर
किया उन्होने सन्तोष
पढ कर जब ये कविता
पाठकों ने नही दिया
कोई टिप्पणी,
कवि के दिल में
हुयी 'अमित' बेचैनी,
आने लगा एक
'स्नेह' ख्याल,
चलो छोडों ना ...
अरे मटियावो ना ...
--अमित कुमार सिंह
Saturday, March 03, 2007
होली की बोली
जिंस पैंट और
टी शर्ट में,
घूम रही थी एक गोरी,
नाम पूछा तो
बोलती है,
है वो होली |
मैंने पूछा, तो बताओ
कहाँ है रंग,
कहाँ है गुलाल?
सुन ये वो हँस पडी,
और बोली-
नीली है जिंस
पीली है ये टी शर्ट,
सुर्ख हैं मेरे गाल,
क्या नहीं दिखते तुम्हे
रंग ये लाल ?
अरे वो नासमझ
इक्किसवीं सदी है ये
समय का है अभाव
रंगो का ऊचाँ है भाव
पर्यावरण प्रदुषण मुक्ति
आदोंलन का है ये प्रभाव,
केबल के रस्ते
अब हो रहा है
रंगो का बहाव,
इठला कर होली ये बोली,
खेल रहे हैं लोग अब केवल
साईबर होली |
इस आधुनिक युग में
दुरियाँ तो गयी हैं घट,
पर फासँला दिलों
का बढ गया है अब,
रफ्तार की इस दुनियाँ में
होली अपना महत्व खोने लगी,
और सोच अपने भविष्य को,
होली की आँखे नम होने लगीं ||
अमित कुमार सिंह
टी शर्ट में,
घूम रही थी एक गोरी,
नाम पूछा तो
बोलती है,
है वो होली |
मैंने पूछा, तो बताओ
कहाँ है रंग,
कहाँ है गुलाल?
सुन ये वो हँस पडी,
और बोली-
नीली है जिंस
पीली है ये टी शर्ट,
सुर्ख हैं मेरे गाल,
क्या नहीं दिखते तुम्हे
रंग ये लाल ?
अरे वो नासमझ
इक्किसवीं सदी है ये
समय का है अभाव
रंगो का ऊचाँ है भाव
पर्यावरण प्रदुषण मुक्ति
आदोंलन का है ये प्रभाव,
केबल के रस्ते
अब हो रहा है
रंगो का बहाव,
इठला कर होली ये बोली,
खेल रहे हैं लोग अब केवल
साईबर होली |
इस आधुनिक युग में
दुरियाँ तो गयी हैं घट,
पर फासँला दिलों
का बढ गया है अब,
रफ्तार की इस दुनियाँ में
होली अपना महत्व खोने लगी,
और सोच अपने भविष्य को,
होली की आँखे नम होने लगीं ||
अमित कुमार सिंह
होली है
रंगीन है शमां
रंगीन है मौसम
जिधर देखो
रंग बिरंगा है माहौल,
चारो ओर मादकता
सी है छायी
अरे- क्या होली है आयी ?
चचंल,इठला रही
अपना सतरंगी
दुपट्टा लहरा रही,
होली,हमे हुडदंग के लिये
बुला रही |
मस्ती की इस बयार में
चेहरे तो हो गये हैं
मलिन और रंगीन,
पर अन्तर्मन हो गये हैं
कितने सुन्दर और हसीन|
बाँह पसारे कर रहे हैं
लोग परस्पर आलिंगन,
मिट गये हैं बैर भाव
मिट गयी है दूरियाँ,
बज रहे हैं मगंल गीत
बजने लगी है संगीत की
मधुर स्वर लहरियाँ |
देख इस प्रेम मिलन को
नेत्र हो गये सजल,
सोचने लगा ये
बावरा 'अमित' दिल
काश!रोज होती होली,
तो खुशियों से खाली
न होती किसी की भी झोली ||
अमित कुमार सिंह
रंगीन है मौसम
जिधर देखो
रंग बिरंगा है माहौल,
चारो ओर मादकता
सी है छायी
अरे- क्या होली है आयी ?
चचंल,इठला रही
अपना सतरंगी
दुपट्टा लहरा रही,
होली,हमे हुडदंग के लिये
बुला रही |
मस्ती की इस बयार में
चेहरे तो हो गये हैं
मलिन और रंगीन,
पर अन्तर्मन हो गये हैं
कितने सुन्दर और हसीन|
बाँह पसारे कर रहे हैं
लोग परस्पर आलिंगन,
मिट गये हैं बैर भाव
मिट गयी है दूरियाँ,
बज रहे हैं मगंल गीत
बजने लगी है संगीत की
मधुर स्वर लहरियाँ |
देख इस प्रेम मिलन को
नेत्र हो गये सजल,
सोचने लगा ये
बावरा 'अमित' दिल
काश!रोज होती होली,
तो खुशियों से खाली
न होती किसी की भी झोली ||
अमित कुमार सिंह
Subscribe to:
Posts (Atom)