Friday, April 27, 2007

मित्रता

मित्रता

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एक रिश्ता है ऐसा

बिल्कुल अनोखा हो जैसा,

स्वार्थ से अछूता,

समन्दर से गहरा हैं वो


जाति पाँति के बन्धनों से परे

धर्मों के आडम्बरों से दूर है जो

कहते हैं जिसे हम मित्रता,

क्या विश्वास है और

कितनी भरी है इसमें मधुरता


सुख मे भले ना

वो दिखलाये,

पर दुःख में हमेशा,

दोस्त काम आये


औपचारिकता से

परे है जो,

दिल के कितने करीब है वो


कह ना सके जो

बात किसी से,

दोस्तों से कह जाते हैं

कितनी सहजता से उसे


भरोसे का अटूट

आधार है जो,

मुसीबतों में खडा

चट्टान है वो


जिसकी देतें हैं

लोग मिसालें,

दोस्ती और दोस्त ही हैं

'अमित' मेरे यार,

जो हमारे जीवन रुपी

नाटक में

अदा करते हैं,

एक महत्वपूर्ण किरदार

वो भी दोस्तों!

एक नहीं अनेकों बार


अमित कुमार सिंह

Tuesday, April 24, 2007

नेता और नरक का द्वार

नेता और नरक का द्वार
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एक बार गलती से
नरक का द्वार
रह गया खुला,
सारे नेता भाग कर
स्वर्ग आने लगे,
स्वर्ग के पहरेदार
उनकी भीड को देख,
गश खाने लगे


जल्दी ही नेता
स्वर्ग में जनता
के शासन की
माँग उठाने लगे,
और इन्द्र की
कुर्सी हिलाने लगे


भोले स्वर्गवासी,
नेताओं की हाँ मे हाँ
मिलाने लगे,
और इन्द्र के सर पे
चिन्ता के बादल,
मडंराने लगे


समस्या का कैसे
निकालें समाधान,
इस पर वो
देवताओं से
बतियाने लगे


देख इन्द्र की हालत
नेता मुस्कुराने लगे,
और इन्द्र को
दावत पे बुलाने लगे


नेता,दावत में
समझौते का प्रस्ताव
पेश करने लगे,
और इन्द्र को माननें
के लिये दबाव,
डालने लगे


अन्त में कोई
रास्ता न देखकर
इन्द्र ने हाँ के लिये
गर्दन हिलायी,
और नेता लोग
एक-दूसरे को,
गले लगाने लगे


समझौते का रहस्य
जानने के लिये
लोग अकल लगाने लगे,
और नेता लोग
स्वर्ग छोड के,
जाने लगे


कविता खत्म
हो गयी,
और लोग उठ
के जाने लगे,

और क्या था -
समझौते का रहस्य ?
"जानने के लिये पढें
अगली किस्त",
के विज्ञापन
अन्तरजाँल पे
आने लगे


अमित कुमार सिंह

Monday, April 23, 2007

मै आवारा ही रह गया

मै आवारा ही रह गया
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बचपन में पढने
से ज्यादा,
खेलता ही रह गया,
और यूँ मै
आवारा ही रह गया


यौवनावस्था में

सामने रहने वाले,
चाँद के टुकडे को
देखता ही रह गया,
और यूँ मै
आवारा ही रह गया


बडे होने पर जब

कुछ कर गुजरने का
समय आया,
दोस्तों के साथ गप्पें
मारता ही रह गया,
और यूँ मै
आवारा ही रह गया


जब कोई रास्ता

नहीं बचा तो,
कलम-कागज लेकर
अपने अनुभव को
ही निचोडनें लगा,

और बातों ही बातों में
कवितायें करने लगा,
और यूँ मै
आवारा ही रह गया


अमित कुमार सिंह

Thursday, April 12, 2007

भूत

भूत
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कल्पना नही

हकिकत हूँ,
काया नहि
एक साया हूँ मै,
इंसानों ने किया

मुझे बदनाम,
दे दिया है
'भूत' मेरा नाम

करता हूँ कितना
मै काम,
निकल जाता हूँ
होते हि शाम

कहते हैं भूत को
होते हैं ये बुरे,
पर हिंसा,अत्याचार,
बेईमानी और भ्रष्टाचार
ये किसने हैं करे?

इंसानों ने अब
करना शुरु कर दिया
हम पर भी अत्याचार,
डराने का खुद ही करके
करने लगे हैं हमारे
पेटों पर वार

डरता हूँ अब इंसानो से
लेता हूँ अपना दिल थाम,
कहीं ये कर ना दें
मेरा भी काम तमाम

हम भूत ही सही
पर हमारा भी है
एक ईमान,
डराने के अपने काम पर
देते हैं हम पूरा ध्यान

हम ही हैं जो
कराते हैं लोगों को
इस कलियुग मे भी
ईश्वर का ध्यान,
क्या नहीं कर रहे
हम कार्य एक महान ?

अमित कुमार सिंह

Wednesday, April 04, 2007

इंतज़ार

इंतज़ार
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कल उनसे मिलन होगा,
सोच कर मन पुलकित हो रहा था,
मिलन की तैयारी में रातों की नींद
खो रहा था।

कौन सी ड्रेस पहनूं,
काली पैंट पर चेक शर्ट या,
फिर क्रीम कलर की पैंट पर,
काली शर्ट,
ये पूछ-पूछ कर दोस्तों को भी
दर्द दे रहा था।

पर यारों मिलन की चाहत में,
मैं इन सब बातों पर,
ध्यान नहीं दे रहा था।

कहीं सुबह लेट न हो जाऊँ,
देर तक कहीं निद्रा में न डूब जाऊँ,
यही सब सोच-सोच कर,
मोबाइल में अलार्म दे रहा था।

इलेक्ट्रानिक्स की चीज़ का भरोसा नहीं,
कब धोखा दे जाए,
इसलिए एक नहीं दो-तीन घड़ियों में,
अलार्म सेट कर रहा था।

आख़िरकार सभी तैयारी हुई पुरी,
मेरे और बिस्तर के बीच,
अब नहीं रही दूरी
जल्द ही मैं खो गया सपनों में

मैं सजधज के तैयार हूं,
उनसे मिलन के लिए,
बेकरार हूं,
वो लाल-नीले रंगों से सजी हुई,
मदमस्त, लहराती हुई आ रही हैं
जैसे ही वो करीब आईं,
मैं लपक कर उनसे समा गया।

मेरा अस्तित्व अब उनके ही
अंदर विलीन हो गया
वो ही अब मेरी पहचान थीं,
और मैं प्यार के पथ पर,
चलता हुआ एक,
पथिक था।

उनमें समा कर मैं,
इधर-उधर गोते खाने लगा,
कभी जागता तो,
कभी सोने लगा।

प्यार उन्होंने इतना दिया,
कि भूख-प्यास का भी ध्यान
अब नहीं रहा
इंतज़ार था तो बस इतना,
कि मंज़िल तक कब पहुँचूँगा
परमानंद की उस ऊंचाई,
को कब पाऊँगा।

तभी अचानक ज़ोर-ज़ोर से,
आवाज़ें आने लगीं,
चौंक कर मैं उठ बैठा,
सपनों का महल
पल भर में ही टूट गया।

कहीं भूकंप तो नहीं आया,
उलटे-सीधे ख्याल मैं
मन में ले आया।

पर फिर मैंने पाया,
मेरी घड़ियों ने
नहीं दिया था धोखा
अपना फ़र्ज़ निभाने का
पाया था उन्होंने ये
सुनहरा मौका।

सपनों से बाहर आने का
समय आ चुका है,
फिर मैंने ये सोचा।

तुरत-फुरत करके तैयारी,
निकाली दोस्तों ने
मेरी सवारी।

बैठा कर ऑटो में,
दी उन्होंने बिदाई
ऑटो वाले ने भी तब,
नब्बे स्र्पया लूँगा की,
अपनी मांग सुनाई।

नब्बे क्या मैं सौ दूँगा,
अगर वक्त पर मैं पहुँचूँगा,
मैंने भी अपनी ये,
इच्छा उसे जताई।

पता नहीं ये किसकी
चाहत का था नतीजा
ऑटो वाले के अधिक पैसे पाने की,
या फिर मेरी उनकी दीदार के,
मैं वक्त से
पहले पहुंचा था।

दिल में उमंगें थीं,
मन में था
बड़ा सुकून,
जल्द ही मिलन होगा,
इसका छाया हुआ था जुनून।

मगर दोस्तों प्यार की राह
है नहीं इतनी आसान
अब शुरू होता है इंतज़ार
का लंबा सफ़र।

याद आने लगे
प्रेमिकाओं के नखरे
इनकी इंतजार करवाने
वाली फ़ितरतें।

खुद को कोसता
क्यों आया इतना वक्त पर,
दीवाना क्यों बन गया,
मिलन की इस चाहत में।

कहीं फँस गई होगी,
राह में कोई मुसीबत आ गई होगी
ये सोच-सोच कर,
अपने दुखी मन को
समझाया।

मेरी वाली अच्छी है
वो धोखा नहीं देगी,
और वक्त पर आकर,
मुझे अपने आगोश में लेगी।

मन में था बस इतना सा ख्वाब,
बेचैन दिल से निकल रही थी आह!
ये इंतज़ार उफ़ ये इंतजार!
तड़प-तड़प के
आ रही थी,
चारों ओर से ये आवाज़।


लंबे इंतज़ार के बाद,
वो देखो!
सीटी बजाते हुए
आ रही थी।

उदास चेहरों पर
खुशी की लहर दौड़ती
जी हां दोस्तों ये!
ये!
कोई मेरी महबूबा नहीं
लौह पथ गामिनी थी,
भारतीय रेल की
खोई हुई एक निशानी थी,
कभी समय पर न आने की
उनकी कहानी थी।

आप ये जो सुन रहे थे,
या यों कहूं,
सुन-सुन कर बोर हो रहे थे,
वो इंतज़ार के दर्द से,
बेहाल एक यात्री की
दर्द भरी कहानी,
उसकी ही जुबानी थी।


अमित कुमार सिंह

कौन महान

कौन महान
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एक दिन मैं देर रात को
ऑफ़िस से आ रहा था
या यों कहिए
घर की ओर जा रहा था
थका-हारा बेहाल
और परेशान
तभी मैं हो गया हैरान
क्योंकि सामने से आ रहे थे
श्रीमान, ज्ञान से अंजान
गधे जी महान


मुझे देखकर वो
थोड़ा मुसकाए,शरमाए
और फिर थोड़े से आश्चर्य के
साथ उन्होंने ये वचन सुनाए,
तुम कैसे हो इंसान?
रात में भी करते हो काम?

मैं बोला श्रीमान
आप हैं मुझसे अंजान
करता हूं मैं काम महान
लोग देते हैं मुझे
आदर और सम्मान
बंदा है एक कंप्यूटर इंजीनियर
'अमित' है मेरा नाम।


यह सुनकर गधे जी महाराज
हो गए थोड़ा चुप
मैंने सोचा मेरे प्रभाव से
ये गए हैं झुक
पर मेरी नासमझी पर
वो थोड़ा मुसकाए
और मुस्कराते हुए बोले
मेरा बोझा भी तू ही ले ले
और मुझे जाने दे

मैंने पूछा -
आपने कहा क्यों ऐसा?
क्या मैं लगता हूं आप जैसा?
इस पर वो बोले
सुना है दुनिया में आ गया है
कोई हमसे भी श्रेष्ठ
जिसे नहीं चाहिए कोई रेस्ट
करता है जो दिन-रात काम-काम
और सिर्फ काम
बोझा ढोने को भी
है वो तैयार
दुनिया जिस पर
करती है एतबार
जानना चाहते हो वो कौन है?
मेरे सरकार!

ये वो हैं जिनकी वजह से
हम गधों की जमात में
फैला है बेरोज़गारी का डर
नौकरी कब चली जाए
इसकी लगी रहती है फ़िक्र

सच ही है भगवन!
तेरी लीला अपरंपार
सदियों से सताए हुए
हम गधों पर तेरा है ये उपकार
करते हैं हम अपनी बिरादरी की
इस नई नस्ल को झुक कर नमस्कार
इसने दिया हमें ये ज्ञान
ये अभिमान
कि, कोई तो है
जिसे देखकर हम भी
कह सकते हैं देखो कितना
गधे की तरह करता है काम
ये और कोई नहीं हो सकता
ये है वो इंसान
दुनिया जिसे कहती है-
कंप्यूटर इंजीनियर महान।


यह सुनकर मैं भूल गया
अपनी सारी अकड़ और शान
और किया गधे जी
महाराज को प्रणाम।


चल पड़ा घर की ओर
विचारों में डूबा हुआ
किसने दिया किसे ज्ञान?
मैं? या वह गधा?
दोनों में से
कौन है महान?


अमित कुमार सिंह

Tuesday, April 03, 2007

परिवर्तन

परिवर्तन
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नया दौर आया,
लेकर नया जमाना
परिवर्तन का मंत्र जपता
हर कोई बन गया है
इसका दीवाना।

परिवर्तन की इस
आंधी में,
बदल गयी है
कविताओं की
भी बानी,
दीर्घ से लघु
में सिमटने की
महत्ता अब
इसने है पहचानी।

समय का है
लोगों के पास अभाव
तीन-चार पंक्तियों में
दे सको यदि पूरी कविता
का भाव,
तो मेरे पास आओ
अन्यथा इसे लेकर
यहाँ से चले जाओ।

और जाते-जाते
मेरा ये सबक अपनाओ-
लिखना नहीं रहा
अब तुम्हारे बस का रोग
पेट पालने के लिए
करो कोई और उद्योग।

सुन के ये
पावन वचन
सिहर गया
मेरा तन बदन
और अपनी जीविका
चलाने के लिए
करने लगा मैं
कविताओं की जड़ों
पर वार।

ओढ़ लबादा परिवर्तनशीलता का
करने लगा मैं भी,
कविताओं की बोनसाई तैयार।

अमित कुमार सिंह

Monday, April 02, 2007

यमराज का इस्तीफा

यमराज का इस्तीफा
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एक दिन
यमदेव ने दे दिया
अपना इस्तीफा।

मच गया हाहाकार
बिगड़ गया सब
संतुलन,
करने के लिए
स्थिति का आकलन,
इन्द्र देव ने देवताओं
की आपात सभा
बुलाई
और फिर यमराज
को कॉल लगाई।

'डायल किया गया
नंबर कृपया जाँच लें'
कि आवाज तब सुनाई।

नये-नये ऑफ़र
देखकर नम्बर बदलने की
यमराज की इस आदत पर
इन्द्रदेव को खुन्दक आई,
पर मामले की नाजुकता

को देखकर,
मन की बात उन्होने
मन में ही दबाई।

किसी तरह यमराज
का नया नंबर मिला,
फिर से फोन
लगाया गया तो
'तुझसे है मेरा नाता
पुराना कोई' का
मोबाईल ने
कॉलर टयून सुनाया।

सुन-सुन कर ये
सब बोर हो गये
ऐसा लगा शायद
यमराज जी सो गये।

तहकीकात करने पर
पता लगा,
यमदेव पृथ्वीलोक
में रोमिंग पे हैं,
शायद इसलिए,
नहीं दे रहे हैं
हमारी कॉल पे ध्यान,
क्योंकि बिल भरने
में निकल जाती है
उनकी भी जान।

अन्त में किसी
तरह यमराज
हुये इन्द्र के दरबार
में पेश,
इन्द्रदेव ने तब
पूछा-यम
क्या है ये
इस्तीफे का केस?

यमराज जी तब
मुँह खोले
और बोले-
हे इंद्रदेव!

'मल्टीप्लैक्स' में
जब भी जाता हूँ,
'भैंसे' की पार्किंग
न होने की वजह से
बिन फिल्म देखे,
ही लौट के आता हूँ।

'बरिस्ता' और 'मैकडोन्लड
'वाले तो देखते ही देखते
इज्जत उतार
देते हैं और
सबके सामने ही
ढ़ाबे में जाकर
खाने-की सलाह
दे देते हैं।

मौत के अपने
काम पर जब
पृथ्वीलोक जाता हूँ
'भैंसे' पर मुझे
देखकर पृथ्वीवासी
भी हँसते हैं
और कार न होने
के ताने कसते हैं।

भैंसे पर बैठे-बैठे
झटके बड़े रहे हैं
वायुमार्ग में भी
अब ट्रैफिक बढ़ रहे हैं।

रफ्तार की इस दुनिया
का मैं भैंसे से
कैसे करूँगा पीछा?
आप कुछ समझ रहे हो
या कुछ और दूँ शिक्षा।

और तो और,
देखोरम्भा के पास है
'टोयटा'
और उर्वशी को है
आपने 'एसेन्ट' दिया,
फिर मेरे साथ
ये अन्याय क्यों किया?
हे इन्द्रदेव!

मेरे इस दु:ख को
समझो और
चार पहिए की
जगह चार पैरों वाला
दिया है कहकर
अब मुझे न बहलाओ,
और जल्दी से
'मर्सिडीज़' मुझेदिलाओ,

वरना मेरा इस्तीफा
अपने साथ
ही लेकर जाओ,
और मौत का
ये काम
अब किसी और से
करवाओ।

अमित कुमार सिंह