अफवाह-एक सच
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अफवाहों पे ध्यान दो
है बडे काम की चीज
बिन पैसे खर्चे
फैलाये खबर सबके बीच
अफवाहों पर
करो भरोसा,
हमेशा समझो
इसे सच
सुन इसे करो
अपनी मनमानी
क्या सही, क्या गलत?
ये सोचना होगी
बिल्कुल नादानी
पूरा करो
इसका उद्देश्य,
भले बिखरे इससे
सारा देश-वेश
आओ मिल कर
करें तोड-फोड और
जम कर फैलायें हिंसा,
आखिर यही तो
हम चाहते हैं,
अफवाहों को
सच जो मानते हैं
लेकिन आज अगर हम
इन पर ध्यान देंगे,
तो कल देशद्रोहियों को
मौका मिल जायेगा,
वो तो अपना काम कर
निकल जायेंगे,
और हम बाद में
केवल पछताते
ही रह जायेंगे
ये नहीं है एक
'अमित' अफवाह,
इसे सच तुम मानो
और अफवाहों को
अफवाह के रुप में
ही तुम जानो
सदा अफवाहों को
एक कान से होकर
दूजे से निकल जाने दो,
बात ये मेरी अब
दोस्तों तुम मानों
अमित कुमार सिंह
Saturday, May 26, 2007
Saturday, May 19, 2007
मोबाइल - हम कितने मजबूर
मोबाइल - हम कितने मजबूर
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मोबाइल पर घंटी बजी
नाम ना हुआ दर्शित,
परेश जी ने सोचा
कौन होगा और
जाने क्या चाहता होगा
अनमने भाव से
उठाया फोन
बोला हैलो कौन ?
उधर से आइ एक आवाज-
मैं हूँ बेटा !
सुन ये परेश जी
गये भडक और रंग
मेट्रो के रंग मे बोले-
अरे जान न पहचान,
कहते हो मुझे बेटा,
अरे बोलो अपना नाम
और बताओ क्या है काम
उधर से आई एक
हताशा से भरी आवाज,
मैं हूँ मि. दिनेश,
पहचाना या कुछ
और बताउँ ?
'दिनेश'! कौन हो भाई ?
काहे को मेरे अवकाश
का दिन करते हो बरबाद,
कुछ काम हो तो
बोलो वरना फोन रख
चलते बनो
मोबाइल पर फिर
उभरी वही निराशा से
भरी आवाज,
अब क्या बोलूँ बेटा,
प्रगति की इस दौड में
रिश्ते नाते हो गयें
हैं कमजोर,
इस मोबाइल युग में
लोग गयें है अपनों
कि पुकार भूल,
हो गयें है वो
न जाने कितने दूर
मोबाइल पर प्रदर्शित
नबंरों से होती है
अब अपनों कि पहचान,
अरे वो नासमझ इंसान !
जिसे नही रहा है
आज तू पहचान और
राग रहा है अपनी ही अलाप
वो है तेरा ही अभागा
बाप
सुन ये 'परेश' जी
रह गये सन्न,
मानो पड गय हो
रंग मे भंग
जाने क्या होता जा रहा है
आज की इस पीढी को,
सुविधाओं से लैस है
और दिल मे है गरुर,
पर मोबाइल मे दर्ज
नंबरो के आगे हैं वो
कितने मजबूर हैं
अपनों से हैं कितने दूर
अमित कुमार सिंह
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मोबाइल पर घंटी बजी
नाम ना हुआ दर्शित,
परेश जी ने सोचा
कौन होगा और
जाने क्या चाहता होगा
अनमने भाव से
उठाया फोन
बोला हैलो कौन ?
उधर से आइ एक आवाज-
मैं हूँ बेटा !
सुन ये परेश जी
गये भडक और रंग
मेट्रो के रंग मे बोले-
अरे जान न पहचान,
कहते हो मुझे बेटा,
अरे बोलो अपना नाम
और बताओ क्या है काम
उधर से आई एक
हताशा से भरी आवाज,
मैं हूँ मि. दिनेश,
पहचाना या कुछ
और बताउँ ?
'दिनेश'! कौन हो भाई ?
काहे को मेरे अवकाश
का दिन करते हो बरबाद,
कुछ काम हो तो
बोलो वरना फोन रख
चलते बनो
मोबाइल पर फिर
उभरी वही निराशा से
भरी आवाज,
अब क्या बोलूँ बेटा,
प्रगति की इस दौड में
रिश्ते नाते हो गयें
हैं कमजोर,
इस मोबाइल युग में
लोग गयें है अपनों
कि पुकार भूल,
हो गयें है वो
न जाने कितने दूर
मोबाइल पर प्रदर्शित
नबंरों से होती है
अब अपनों कि पहचान,
अरे वो नासमझ इंसान !
जिसे नही रहा है
आज तू पहचान और
राग रहा है अपनी ही अलाप
वो है तेरा ही अभागा
बाप
सुन ये 'परेश' जी
रह गये सन्न,
मानो पड गय हो
रंग मे भंग
जाने क्या होता जा रहा है
आज की इस पीढी को,
सुविधाओं से लैस है
और दिल मे है गरुर,
पर मोबाइल मे दर्ज
नंबरो के आगे हैं वो
कितने मजबूर हैं
अपनों से हैं कितने दूर
अमित कुमार सिंह
Friday, May 11, 2007
मैंने हवा से कहा
मैंने हवा से कहा
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सुबह हो रही है
मैंने हवा से कहा।
हवा बह रही है,
मैंने जहाँ से कहा॥
सुबह की बेला आयी,
फिर भी तू सो रहा है।
रे मनुष्य! उठ जा,
ये हवा ने मुझसे कहा॥
मैंने हवा से कहा,
दुनिया सो रही है।
फिर तू क्योंबह रही है।
जवाब है हवा का,
नादान है तू,
नहीं हूँ मैं मनुष्य।
नि:स्वार्थ भाव से
बहते जाना
रुकना न ये काम
है हमारा॥
समुद्र के सीने को
चीर कर,चट्टानों से
टकरा कर भी
बहते जाना,बस बहते जाना
ही काम है मेरा।
समझ सको अगर तुम
ये संदेश मेरा
तो जहाँ में हो
जाये सबेरा।
तब हवा ये कहेगी
सुबह हो चुकी है,
हवा बह रही है
मनुष्य चल रहा है।
मनुष्य और हवा का
ये संगम होगा
कितना प्यारा,
खिल उठेगा जब
इससे संसार हमारा॥
हवा ने दिया संदेश
मानव को मिला ये उपदेश
कर्म-पथ पर बढ़ते जाना
सुबह हो या शाम।
बाधाओं से न तुम
घबराना,हवा की तरह
बस तुम चलते जाना।
पूरे होंगे सपने तुम्हारे
जग में फैलेगा नाम तेरा,
रुकना न तुम,बस बहते जाना,
हवा से तुम
बातें करते जाना।
रुक-रुक कर लेना
तुम आराम
ये भी आएगा तुम्हारे काम,
हवा तो सिर्फ हवा है,
सिर्फ उड़ते मत जाना।
पैर हों तुम्हारे जमीन पर,
सोच हो तुम्हारी
आकाश पर,
मान लो ये संदेश हमारा,
फिर होगा संगम
हमारा और तुम्हारा।
मुझसे ये हवा ने कहा,
मैं चुपचाप सुनता रहा।
कहने का तो है बहुत
कुछ पर,अब तू जा,
सुबह हो रही है,
मैंने हवा से कहा।
अमित कुमार सिह्
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सुबह हो रही है
मैंने हवा से कहा।
हवा बह रही है,
मैंने जहाँ से कहा॥
सुबह की बेला आयी,
फिर भी तू सो रहा है।
रे मनुष्य! उठ जा,
ये हवा ने मुझसे कहा॥
मैंने हवा से कहा,
दुनिया सो रही है।
फिर तू क्योंबह रही है।
जवाब है हवा का,
नादान है तू,
नहीं हूँ मैं मनुष्य।
नि:स्वार्थ भाव से
बहते जाना
रुकना न ये काम
है हमारा॥
समुद्र के सीने को
चीर कर,चट्टानों से
टकरा कर भी
बहते जाना,बस बहते जाना
ही काम है मेरा।
समझ सको अगर तुम
ये संदेश मेरा
तो जहाँ में हो
जाये सबेरा।
तब हवा ये कहेगी
सुबह हो चुकी है,
हवा बह रही है
मनुष्य चल रहा है।
मनुष्य और हवा का
ये संगम होगा
कितना प्यारा,
खिल उठेगा जब
इससे संसार हमारा॥
हवा ने दिया संदेश
मानव को मिला ये उपदेश
कर्म-पथ पर बढ़ते जाना
सुबह हो या शाम।
बाधाओं से न तुम
घबराना,हवा की तरह
बस तुम चलते जाना।
पूरे होंगे सपने तुम्हारे
जग में फैलेगा नाम तेरा,
रुकना न तुम,बस बहते जाना,
हवा से तुम
बातें करते जाना।
रुक-रुक कर लेना
तुम आराम
ये भी आएगा तुम्हारे काम,
हवा तो सिर्फ हवा है,
सिर्फ उड़ते मत जाना।
पैर हों तुम्हारे जमीन पर,
सोच हो तुम्हारी
आकाश पर,
मान लो ये संदेश हमारा,
फिर होगा संगम
हमारा और तुम्हारा।
मुझसे ये हवा ने कहा,
मैं चुपचाप सुनता रहा।
कहने का तो है बहुत
कुछ पर,अब तू जा,
सुबह हो रही है,
मैंने हवा से कहा।
अमित कुमार सिह्
Monday, May 07, 2007
नारी समानता - एक परिवर्तन
नारी समानता - एक परिवर्तन
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नारी समानता के
इस युग में
भोजन पका रहा हूँ,
दफ्तर से लौटी
बीबी के लिये
चाय बना रहा हूँ
नारी जागरण कीं
क्रन्ति का शिकार हूँ,
कपडे धुलता-धुलता
हुआ अब मैं बेहाल हूँ
याद कर बीते दिनो को
सिसकता हूँ,
नारीयों के इस
नये कदम
से सिहर जाता हूँ
कहीं कोई गलती
ना हो जाये
इससे बचता हूँ,
नारी उत्पीडन का
केस कर दूँगी,
इस धमकी से
बहुत डरता हूँ
चारो ओर नारी-उत्थान
की चर्चा सुनता हूँ,
और अखबारों में अब
'घरेलू पति चाहिये'
का इश्तहार देखता हूँ
वो भी क्या दिन थे
आदेश जब हम
दिया करते थे,
चाय-पकौडों में
देरी होने पर
कितनी जोर से
गरजा करते थे
नारी शक्ति के
इस युग में
अब पुरुष-उत्पीडन का
केस लडता हूँ,
कटघरे में खडे
पुरुषों की सहमी हुयी
हालत को
बेबश देखता हूँ
क्या सही है
क्या गलत,
अभी कुछ नही
समझ आता है,
अब तो नारीयों से
यही है विनती-
भूल कर पुरानी बातों को
यदि वो बाँट लें
अब काम आधा-आधा,
तो होगा जीवन में
दोनों के सकून
ये है हमारा वादा
अमित कुमार सिंह
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नारी समानता के
इस युग में
भोजन पका रहा हूँ,
दफ्तर से लौटी
बीबी के लिये
चाय बना रहा हूँ
नारी जागरण कीं
क्रन्ति का शिकार हूँ,
कपडे धुलता-धुलता
हुआ अब मैं बेहाल हूँ
याद कर बीते दिनो को
सिसकता हूँ,
नारीयों के इस
नये कदम
से सिहर जाता हूँ
कहीं कोई गलती
ना हो जाये
इससे बचता हूँ,
नारी उत्पीडन का
केस कर दूँगी,
इस धमकी से
बहुत डरता हूँ
चारो ओर नारी-उत्थान
की चर्चा सुनता हूँ,
और अखबारों में अब
'घरेलू पति चाहिये'
का इश्तहार देखता हूँ
वो भी क्या दिन थे
आदेश जब हम
दिया करते थे,
चाय-पकौडों में
देरी होने पर
कितनी जोर से
गरजा करते थे
नारी शक्ति के
इस युग में
अब पुरुष-उत्पीडन का
केस लडता हूँ,
कटघरे में खडे
पुरुषों की सहमी हुयी
हालत को
बेबश देखता हूँ
क्या सही है
क्या गलत,
अभी कुछ नही
समझ आता है,
अब तो नारीयों से
यही है विनती-
भूल कर पुरानी बातों को
यदि वो बाँट लें
अब काम आधा-आधा,
तो होगा जीवन में
दोनों के सकून
ये है हमारा वादा
अमित कुमार सिंह
Sunday, May 06, 2007
धूम्रपान - एक कठिन काम
धूम्रपान - एक कठिन काम
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करते हैं जो धूम्रपान
की निन्दा
उनसे हूँ मै
बहुत खफा,
जान लें वो
इस कार्य कि
महत्ता को,
या फिर हो
जायें यहाँ से दफा
महान ये काम है
आसान नही ये राह है
वर्षो की साधना का
निकला ये परिणाम है
धुँयें के छल्ले बनाना
एक साँस में ही
पूरी सिगरेट पीना,
जहरीले धुँयें को
अपनें अन्दर समा कर
चेहरे पर खुशी की
झलक दिखलाना,
इसका नहीं कोई मेल है
ना ही ये हँसी और खेल है
खुद के फेफडों को
दाँव पर लगाकर
सिगरेट के कश
लगाते है
यूँ ही नहीं दुनियाँ में
साहसी हम कहलाते है
सिगरेट के धुँयें कितनों को
रोजगार दिलाते हैं,
इसकी एक कश से
कठिन से कठिन समस्या का
हल यूँ ही निकल आते हैं
बढती आबादी पर
लगाने का लगाम,
क्या नही कर रहे
हम नेक ये काम
खुद को धुँये में
जला कर
बनते हैं दुसरों के लिये
बुरे एक उदाहरण,
नहीं काम है ये साधारण
क्यूँ नाहक ही करते हो
हमे इस तरह बदनाम,
दे-दे कर गालियाँ
सुबह और शाम
अभी समझ आया या
फिर कुछ और सुनाउँ,
रूको! जरा पहले
एक सिगरेट तो जलाउँ
अमित कुमार सिंह
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करते हैं जो धूम्रपान
की निन्दा
उनसे हूँ मै
बहुत खफा,
जान लें वो
इस कार्य कि
महत्ता को,
या फिर हो
जायें यहाँ से दफा
महान ये काम है
आसान नही ये राह है
वर्षो की साधना का
निकला ये परिणाम है
धुँयें के छल्ले बनाना
एक साँस में ही
पूरी सिगरेट पीना,
जहरीले धुँयें को
अपनें अन्दर समा कर
चेहरे पर खुशी की
झलक दिखलाना,
इसका नहीं कोई मेल है
ना ही ये हँसी और खेल है
खुद के फेफडों को
दाँव पर लगाकर
सिगरेट के कश
लगाते है
यूँ ही नहीं दुनियाँ में
साहसी हम कहलाते है
सिगरेट के धुँयें कितनों को
रोजगार दिलाते हैं,
इसकी एक कश से
कठिन से कठिन समस्या का
हल यूँ ही निकल आते हैं
बढती आबादी पर
लगाने का लगाम,
क्या नही कर रहे
हम नेक ये काम
खुद को धुँये में
जला कर
बनते हैं दुसरों के लिये
बुरे एक उदाहरण,
नहीं काम है ये साधारण
क्यूँ नाहक ही करते हो
हमे इस तरह बदनाम,
दे-दे कर गालियाँ
सुबह और शाम
अभी समझ आया या
फिर कुछ और सुनाउँ,
रूको! जरा पहले
एक सिगरेट तो जलाउँ
अमित कुमार सिंह
चेहरे पर चेहरा
चेहरे पर चेहरा
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मुखौटा पहन अपनी
पहचान छुपाये हुये है
आज का इंसान
चेहरे पर चेहरा
लगाये हुये है
समेट अपने अन्दर
दुःखों का समन्दर,
चेहरे पर हँसी
चिपकाये हुये है
आज का इंसान
चेहरे पर चेहरा
लगाये हुये है
वास्तविकता का
सामना करने से
घबराये हुये है,
आज का इंसान
चेहरे पर चेहरा
लगाये हुये है
चेहरे पर पडी
झुर्रियों को,
मेकअप में
छुपाये हुये है
आज का इंसान
चेहरे पर चेहरा
लगाये हुये है
जिसे समझा था दोस्त
निकला वो दुश्मन,
सच्चाई से कितनी दूरी
बनाये हुये है
आज का इंसान
चेहरे पर चेहरा
लगाये हुये है
हकीकत को भगा दूर
भ्रम में जीने की
आदत बनाये हुये है,
आज का इंसान
चेहरे पर चेहरा
लगाये हुये है
दिखावे के लोभ में
अपनों को ही
सताये हुये है,
आज का इंसान
चेहरे पर चेहरा
लगाये हुये है
खुद ही को
धोखा देकर,
खुश रहने के
सपने सजाये हुये है
आज का इंसान
चेहरे पर चेहरा
लगाये हुये है
चेहरे पर चिपके
इस चेहरे को देखकर
सोचता है 'किरन' ये मन-
क्यों कोमल संवेदनाओं
के मोल पर मशीनी,
हो रहा है इंसान ?
आधुनिकता की
इस दौड में,
अकेला ही तो
रह गया है वो,
जाने क्या चाहता है
आज का ये इंसान ?
अमित कुमार सिंह
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