Friday, September 28, 2007

आलसी सच

आलसी सच
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आलस ने जब जोर मारा,
शरीर ने ली अंगडाई,
रोम रोम में भर गई ताजगी,
फुर्ती है चँहु ओर छाई,


कितनी भोली मासुमियत लेकर,
आलस है भाई 'अमित' देखो आई



मधुर रागिनी फैलाकर
आलस ये बोली-
नाहक ही मैं बदनाम हूँ,
जबकि करती कितने काम हूँ



कर शरीर की सारी क्रियाये सिथिल
देती उसे आराम हूँ ,
पर देखो मैं
फिर भी बदनाम हूँ,


मिलती हैं मुझे गालियाँ,
जबकि नही है इसमें
मेरी कोई खामियाँ



मुझ पर हो रहे हैं
चारो तरफ से प्रहार,
वो भी एक नही
अनेकों बार



अपनी असफ़लता का,
मुझ पर कर दोषारोपण,
कर रहें लोग
मेरा भी शोषण



अपना काम मेहनत से
करने की सजा पा रही हूँ ,
और इस कलयुग में
परोपकार करने का पाप
आलस पूर्वक कर रही हूँ



आलस पर लिखते लिखते
मेरी लेखनी भी थक गई ,
और मेरी आलसी कल्पना
निद्रा की गोद में सो गई



दूसरो की तरह मैंने भी
इसका श्रेय आलस को दिया ,
और इस कविता की
सत्यता को परखने के लिये,
'अमित' सपनों कि
दुनिया में खो गया



अमित कुमार सिंह

Tuesday, September 11, 2007

कौन है बूढ़ा


कौन है बूढ़ा
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जीवन के सब रंग
देख चुका,
बैठा हूँ
उम्र के आखिरी
पड़ाव पर!


ढ़ल चुकीहै काया
अपनों के बीच
में ही हो
गया हूँ पराया।


सेवा निवृत्ति के बाद
अचानक सा
सब बदल गया
घिरा रहने वाला
भीड़ों से
दिख रहा है आज
बिल्कुल अकेला।


वही है तन,
वही है काया
पल भर में ही
खुद को मैंने
उपेक्षित क्यों है पाया।


जटिल है स्थिति ये
समाधान की है
सिर्फ आस।


गूँज रहा है
प्रश्न ये,
मन में मेरे बार-बार,
क्षण भर पहले
भरा रहने वाला
अनंत ऊर्जा से
हो गया हूँ
क्या मैं अब ऊर्जाहीन,
बूढ़ा, लाचार
और बेकार?


पर आज के युवाओं
में फैले इच्छा शक्ति
की थकान और
वैचारिक शिथिलता को
देखकर सोचता हूँ-

कैसा है समाज
ये रूढ़ा,
कहना किसे चाहिए
और कह किसे
रहा है बूढ़ा।


अमित कुमार सिंह