मोबाइल - हम कितने मजबूर
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मोबाइल पर घंटी बजी
नाम ना हुआ दर्शित,
परेश जी ने सोचा
कौन होगा और
जाने क्या चाहता होगा
अनमने भाव से
उठाया फोन
बोला हैलो कौन ?
उधर से आइ एक आवाज-
मैं हूँ बेटा !
सुन ये परेश जी
गये भडक और रंग
मेट्रो के रंग मे बोले-
अरे जान न पहचान,
कहते हो मुझे बेटा,
अरे बोलो अपना नाम
और बताओ क्या है काम
उधर से आई एक
हताशा से भरी आवाज,
मैं हूँ मि. दिनेश,
पहचाना या कुछ
और बताउँ ?
'दिनेश'! कौन हो भाई ?
काहे को मेरे अवकाश
का दिन करते हो बरबाद,
कुछ काम हो तो
बोलो वरना फोन रख
चलते बनो
मोबाइल पर फिर
उभरी वही निराशा से
भरी आवाज,
अब क्या बोलूँ बेटा,
प्रगति की इस दौड में
रिश्ते नाते हो गयें
हैं कमजोर,
इस मोबाइल युग में
लोग गयें है अपनों
कि पुकार भूल,
हो गयें है वो
न जाने कितने दूर
मोबाइल पर प्रदर्शित
नबंरों से होती है
अब अपनों कि पहचान,
अरे वो नासमझ इंसान !
जिसे नही रहा है
आज तू पहचान और
राग रहा है अपनी ही अलाप
वो है तेरा ही अभागा
बाप
सुन ये 'परेश' जी
रह गये सन्न,
मानो पड गय हो
रंग मे भंग
जाने क्या होता जा रहा है
आज की इस पीढी को,
सुविधाओं से लैस है
और दिल मे है गरुर,
पर मोबाइल मे दर्ज
नंबरो के आगे हैं वो
कितने मजबूर हैं
अपनों से हैं कितने दूर
अमित कुमार सिंह
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