Sunday, December 21, 2008

दीवाने सनम


दीवाने सनम

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बार बार घडी देख कर

बहाने ना बनाओ,

घूमने नहीं चलना है

तो यू न मुझे बनाओ !



हैलो - हैलो मिस्टर तुम यू

न मुझे सपने दिखाओ,

शापिंग करने चलते

हो तो बताओ !


यू ना आने वाली तेरी

मीठी -मीठी बातों मे सनम,

गहनें दिलाते हो तो

अपनी बातें सुनाओ !


आँखों मे बसे हो की

धुन न मुझे सुनाओ,

फोटो खिंचने के लिये

कैमरा तो पहले दिलाओ !


अरे ओ दिवाने सनम

दिल में रहने की बातें कर,

समय ना बिताओ

मेरे रहने के लिये पहले
घर तो एक बनाओ !


तुम दिवानों की बातें हैं

बडी ही निराली,

जेब है खाली और

अदा है शहंशाहों वाली !


सपने तो सनम तेरे

होते हैं बडे सुहावने,

कडी जिन्दगी की सच्चाई

पर सुने ना कोई बहाने !


बातें सुन ये मेरी

स्वार्थी न समझना,

हकीकत बता रही हूँ जिन्दगी की

गलत ना समझना !


बहुत हो गये गिले - शिकवे

बहुत हो गयीं 'किरन' शिकायतें,

अब तो मुझे बस यही है कहना

चाहे जो भी हो मुझे तो बस

'अमित' तेरे संग ही है रहना !!



अमित कुमार सिंह



Tuesday, December 09, 2008

उनकी याद

उनकी याद

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आती है याद उनकी,

दिल को बहुत सताती है

याद उनकी,

नाश्ते में खाता हूँ जब सैंडविच,

पकौडों की याद आती है बहुत!

दोपहर में जब खाता हूँ,

पिज्जा या बर्गर,

दाल रोटी की

याद आती है बहुत !

रात के खाने में देख नूड्ल्स

याद आती है,

बांसमती चावल कि

वो भीनी सुगन्ध !

मन हो जाता है

व्याकुल,

याद आते हैं जब वो दिन,

आधुनिकता कि दौड में,

जब लगते थे पकौडे पिछडे,

दाल रोटी कि

उडाते थे हँसी,

और बांसमती को

ठुकराते थे हम कभी !


श्रीमती जी करतीं थीं जब

भोजन करने का "किरन" आग्रह,

देते थे तब उन्हे ताने,

पिज्जा या बर्गर क्यों

नहीं आता तुम्हे बनाने!



लहसुन धनिये कि वो चटनी

सरसो का वो साग,

दिल को गुदगुदा जाती है

आज भी वो तडके वाली

चने की दाल!

उन गलतियों का
करता हूँ अहसास,
परदेशी शहर 'टोरंटो' में
जब आती है,
स्वदेशी खाने की "अमित" याद!!


- अमित कुमार सिंह

Saturday, April 19, 2008

इस्त्री और सौन्दर्य

इस्त्री और सौन्दर्य
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एक दिन मैं और
श्रीमती जी ब्यूटी पार्लर गये,
देख वहा इस्त्री मशीन
जगा मन मे कौतुहल,
पूछ बैठा सौन्दर्यबाला से-


क्या आप के यहा
इस्त्री भी होती है?
सुन ये सवाल वो
मुझे घूरने लगी
और सौन्दर्य के
मेरे अल्प ज्ञान पर
मुस्कराने लगी !


क्षण भर बाद वो बोली-
लगता है आप सौन्दर्य
की विधाओं से अंजान हैं
मेरे यहाँ पहली बार
बने मेहमान हैं !


मेरी इस बेवकूफी भरी
हरकत पर श्रीमती जी
उबलने लगीं,
और अपनी बडी-बडी आखोँ
से मुझे डराने लगीं !


पढ उनकी आखोँ का
ये सदेंश मुझे
अपना हश्र नजर
आने लगा और
अब बेलन वाले प्रसाद का
भय मुझे सताने लगा !


कुछ समय बाद
देखता हूँ कि-
इस्त्री गर्म हो
श्रीमती जी के बालों
पर चलने लगी है
और अपनी तपन से
उसे सीधा करने लगी है !


आधुनिक युग के
इस अदभुत दृश्य को
देखकर मेरी आँखें
खुली की खुली रह
गयीं और सौन्दर्य के
इस भौगोलीकरण पर,
उपकरणों के इस अनूठे
उपयोग पर,
मेरी 'अमित' लेखनी
स्तब्ध रह गयी !!


अमित कुमार सिंह

Tuesday, April 15, 2008

क़ैसे करु वर्णन ?

क़ैसे करु वर्णन ?
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लेखनी हुयी परेशान
कैसे लिखूँ उनका नाम,
उनके हसीन चेहरे पर
छायी मधुर 'किरन' का
कैस करु वर्णन,
सोचते -सोचते हो गयी
लेखनी भी बेचैन,
और लो ये तो
हो गयी सुबह से शाम !


सूर्य के प्रकाश से
प्रज्जवलित मुख का
वर्णन भी न कर पाया
और चांदनी ने अपनी
आभा उन पर,
बिखेर डाला !


आज कवि के
शब्दों ने मौन
क्यों है किया धारण?
नहीं है ये
बात साधारण !



कहना तो बहुत
कुछ चाहता हूँ,
पर शब्दों का
चयन नहीं कर
पा रहा हूँ !


चंचल हैं उनके
चितवन,
कटार सी तीखीं
हैं निगाहें,
अधरों पर छायी
मधुर मुस्कान है,
गुलाबी उनके
कपोल हैं,
चेहरा उनका,
चन्द्रमा सा गोल है,
उस पर जो कातिल
तिल है,
देख उसे होता
उद्देलित मेरा
दिल है !



सोच जिसे,
पुलकित हुआ मेरा मन है,
बाहें फैलाये,
खुशियां समेटने को
बेचैन ये दिल है !


श्यामल घटाओं सी
रेशमी जुल्फें हैं,
जिन पर अरुणिमा सा
चमकता सिन्दूर है,
करता चित्त की
वासनाओं जो दूर है,
क्या गजब का
चेहरे पर उनके
छाया नूर है !


पायलों का संगीत
उनके आने की
देता आहट है,
जल प्रपात सी
स्वच्छंद उनकी
खिलखिलाहट है,
क्या ही सुन्दर उनके
चेहरे की बनावट है !


मदमस्त उनकी चाल
उस पर उनकी
मतवाली अदा,
लेती है दिलों को हर,
देख ले कोई उन्हे
अगर सिर्फ पल भर !

उनके सौन्दर्य का
यदि करने लगे ये
आशिक 'अमित' वर्णन,
तो दोस्तों-

चाहिये अम्बर भर कागज,
समुन्दर दी स्याही,
पेडों की बना लूं
गर लेखनी,

तो फिर शायद प्रस्तुत कर पाये
ये प्रेमी कवि,
उनके मोहनी मूरत
और उस पर छायी
अव्दितीय आभा की
कुछ मधुर झलकियां !!



अमित कुमार सिंह

Sunday, January 06, 2008

प्रेम का रंग

प्रेम का रंग
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जब से देखा है

वो चेहरा,

चित्त हुआ उद्देलित,

बानी पर रहा न

नियन्त्रण,

लेखनी भी हुयी

बेकाबू,

अरे ये क्या हुआ

आपको रमेश बाबू ?


पता चला कि

रमेश बाबू की

अभी अभी हुयी है

सगाई,

और इन्होने उस

रामणी से आँख

है मिलाई


रमणी की वक्र

द्रिष्टि ने,

अपने रमेश बाबू कि

नींद है उडाई


अब बावरे से हुये

घूम रहे हैं,

खुशियों से देखो

कैसे झूम रहे हैं


आफिस के सहयोगी

कानाफूसी करने लगे हैं,

रमेश बाबू आजकल

काम जो करने लगे हैं


दोस्तों-मित्रों ने भी

बनाया उनका मजाक है,

बोले दीवानों का

होता यही हाल है


ये सज्जन जो-

बाल काढना अपना

अपमान समझते थे,

कपडों को साफ करना,

एक लज्जाजनक कृत,

आजकल बालों में

तेल डालकर

चकाचक कपडे पहने

इत्रमान हो बतियाते हैं,

और सबको सफाई कि

महत्ता समझाते हैं


कवि लोग भी हुये

हैरान-परेशान,

देख रमेश बाबू

का ये हाल परिवर्तन-

बिरादरी के लोगों की

संख्या अब घटने लगी है,

इसका करने लगे वो

आत्ममंथन


मंथन के इस दौर में,

अचानक आया,

मुझे भी ये ख्याल-

सुधर सकते हैं अगर

रमेश बाबू भी तो,

क्यूँ न मिला लूँ

मैं भी उनकी ही ताल मे ताल


कुछ दिनों बाद,

कवि बिरादरी में

एक और चर्चा

गुंजायमान हो उठी,

बिरादरी का एक और

'अमित' रंग

'क़िरन' की आँच में तपकर,

छोड गया था,

कवियों का संग


ऐसा ही होता है मित्रों -

छूट जाती है सारी

पुरानी तरंग,

जब चढता है,

प्रेम का दीवाना

और मधुर रंग


अमित कुमार सिंह