Friday, September 28, 2007

आलसी सच

आलसी सच
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आलस ने जब जोर मारा,
शरीर ने ली अंगडाई,
रोम रोम में भर गई ताजगी,
फुर्ती है चँहु ओर छाई,


कितनी भोली मासुमियत लेकर,
आलस है भाई 'अमित' देखो आई



मधुर रागिनी फैलाकर
आलस ये बोली-
नाहक ही मैं बदनाम हूँ,
जबकि करती कितने काम हूँ



कर शरीर की सारी क्रियाये सिथिल
देती उसे आराम हूँ ,
पर देखो मैं
फिर भी बदनाम हूँ,


मिलती हैं मुझे गालियाँ,
जबकि नही है इसमें
मेरी कोई खामियाँ



मुझ पर हो रहे हैं
चारो तरफ से प्रहार,
वो भी एक नही
अनेकों बार



अपनी असफ़लता का,
मुझ पर कर दोषारोपण,
कर रहें लोग
मेरा भी शोषण



अपना काम मेहनत से
करने की सजा पा रही हूँ ,
और इस कलयुग में
परोपकार करने का पाप
आलस पूर्वक कर रही हूँ



आलस पर लिखते लिखते
मेरी लेखनी भी थक गई ,
और मेरी आलसी कल्पना
निद्रा की गोद में सो गई



दूसरो की तरह मैंने भी
इसका श्रेय आलस को दिया ,
और इस कविता की
सत्यता को परखने के लिये,
'अमित' सपनों कि
दुनिया में खो गया



अमित कुमार सिंह

Tuesday, September 11, 2007

कौन है बूढ़ा


कौन है बूढ़ा
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जीवन के सब रंग
देख चुका,
बैठा हूँ
उम्र के आखिरी
पड़ाव पर!


ढ़ल चुकीहै काया
अपनों के बीच
में ही हो
गया हूँ पराया।


सेवा निवृत्ति के बाद
अचानक सा
सब बदल गया
घिरा रहने वाला
भीड़ों से
दिख रहा है आज
बिल्कुल अकेला।


वही है तन,
वही है काया
पल भर में ही
खुद को मैंने
उपेक्षित क्यों है पाया।


जटिल है स्थिति ये
समाधान की है
सिर्फ आस।


गूँज रहा है
प्रश्न ये,
मन में मेरे बार-बार,
क्षण भर पहले
भरा रहने वाला
अनंत ऊर्जा से
हो गया हूँ
क्या मैं अब ऊर्जाहीन,
बूढ़ा, लाचार
और बेकार?


पर आज के युवाओं
में फैले इच्छा शक्ति
की थकान और
वैचारिक शिथिलता को
देखकर सोचता हूँ-

कैसा है समाज
ये रूढ़ा,
कहना किसे चाहिए
और कह किसे
रहा है बूढ़ा।


अमित कुमार सिंह

Saturday, May 26, 2007

अफवाह-एक सच

अफवाह-एक सच
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अफवाहों पे ध्यान दो
है बडे काम की चीज
बिन पैसे खर्चे
फैलाये खबर सबके बीच


अफवाहों पर
करो भरोसा,
हमेशा समझो
इसे सच


सुन इसे करो
अपनी मनमानी
क्या सही, क्या गलत?
ये सोचना होगी
बिल्कुल नादानी


पूरा करो
इसका उद्देश्य,
भले बिखरे इससे
सारा देश-वेश


आओ मिल कर
करें तोड-फोड और
जम कर फैलायें हिंसा,
आखिर यही तो
हम चाहते हैं,
अफवाहों को
सच जो मानते हैं


लेकिन आज अगर हम
इन पर ध्यान देंगे,
तो कल देशद्रोहियों को
मौका मिल जायेगा,
वो तो अपना काम कर
निकल जायेंगे,
और हम बाद में
केवल पछताते
ही रह जायेंगे


ये नहीं है एक
'अमित' अफवाह,
इसे सच तुम मानो
और अफवाहों को
अफवाह के रुप में
ही तुम जानो


सदा अफवाहों को
एक कान से होकर
दूजे से निकल जाने दो,
बात ये मेरी अब
दोस्तों तुम मानों



अमित कुमार सिंह


Saturday, May 19, 2007

मोबाइल - हम कितने मजबूर

मोबाइल - हम कितने मजबूर
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मोबाइल पर घंटी बजी
नाम ना हुआ दर्शित,
परेश जी ने सोचा
कौन होगा और
जाने क्या चाहता होगा


अनमने भाव से
उठाया फोन
बोला हैलो कौन ?
उधर से आइ एक आवाज-
मैं हूँ बेटा !

सुन ये परेश जी
गये भडक और रंग
मेट्रो के रंग मे बोले-
अरे जान न पहचान,
कहते हो मुझे बेटा,
अरे बोलो अपना नाम
और बताओ क्या है काम


उधर से आई एक
हताशा से भरी आवाज,
मैं हूँ मि. दिनेश,
पहचाना या कुछ
और बताउँ ?

'दिनेश'! कौन हो भाई ?
काहे को मेरे अवकाश
का दिन करते हो बरबाद,
कुछ काम हो तो
बोलो वरना फोन रख
चलते बनो


मोबाइल पर फिर
उभरी वही निराशा से
भरी आवाज,
अब क्या बोलूँ बेटा,
प्रगति की इस दौड में
रिश्ते नाते हो गयें
हैं कमजोर,

इस मोबाइल युग में
लोग गयें है अपनों
कि पुकार भूल,
हो गयें है वो
न जाने कितने दूर


मोबाइल पर प्रदर्शित
नबंरों से होती है
अब अपनों कि पहचान,
अरे वो नासमझ इंसान !
जिसे नही रहा है
आज तू पहचान और
राग रहा है अपनी ही अलाप
वो है तेरा ही अभागा
बाप


सुन ये 'परेश' जी
रह गये सन्न,
मानो पड गय हो
रंग मे भंग


जाने क्या होता जा रहा है
आज की इस पीढी को,
सुविधाओं से लैस है
और दिल मे है गरुर,
पर मोबाइल मे दर्ज
नंबरो के आगे हैं वो
कितने मजबूर हैं
अपनों से हैं कितने दूर


अमित कुमार सिंह

Friday, May 11, 2007

मैंने हवा से कहा

मैंने हवा से कहा
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सुबह हो रही है
मैंने हवा से कहा।
हवा बह रही है,
मैंने जहाँ से कहा॥


सुबह की बेला आयी,
फिर भी तू सो रहा है।
रे मनुष्य! उठ जा,
ये हवा ने मुझसे कहा॥


मैंने हवा से कहा,
दुनिया सो रही है।
फिर तू क्योंबह रही है।

जवाब है हवा का,
नादान है तू,
नहीं हूँ मैं मनुष्य।
नि:स्वार्थ भाव से
बहते जाना
रुकना न ये काम
है हमारा॥


समुद्र के सीने को
चीर कर,चट्टानों से
टकरा कर भी
बहते जाना,बस बहते जाना
ही काम है मेरा।

समझ सको अगर तुम
ये संदेश मेरा
तो जहाँ में हो
जाये सबेरा।

तब हवा ये कहेगी
सुबह हो चुकी है,
हवा बह रही है
मनुष्य चल रहा है।

मनुष्य और हवा का
ये संगम होगा
कितना प्यारा,
खिल उठेगा जब
इससे संसार हमारा॥


हवा ने दिया संदेश
मानव को मिला ये उपदेश
कर्म-पथ पर बढ़ते जाना
सुबह हो या शाम।

बाधाओं से न तुम
घबराना,हवा की तरह
बस तुम चलते जाना।

पूरे होंगे सपने तुम्हारे
जग में फैलेगा नाम तेरा,
रुकना न तुम,बस बहते जाना,
हवा से तुम
बातें करते जाना।

रुक-रुक कर लेना
तुम आराम
ये भी आएगा तुम्हारे काम,
हवा तो सिर्फ हवा है,
सिर्फ उड़ते मत जाना।

पैर हों तुम्हारे जमीन पर,
सोच हो तुम्हारी
आकाश पर,
मान लो ये संदेश हमारा,
फिर होगा संगम
हमारा और तुम्हारा।

मुझसे ये हवा ने कहा,
मैं चुपचाप सुनता रहा।
कहने का तो है बहुत
कुछ पर,अब तू जा,
सुबह हो रही है,
मैंने हवा से कहा।

अमित‌ कुमार‌ सिह्

Monday, May 07, 2007

नारी समानता - एक परिवर्तन

नारी समानता - एक परिवर्तन
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नारी समानता के
इस युग में
भोजन पका रहा हूँ,
दफ्तर से लौटी
बीबी के लिये
चाय बना रहा हूँ


नारी जागरण कीं
क्रन्ति का शिकार हूँ,
कपडे धुलता-धुलता
हुआ अब मैं बेहाल हूँ


याद कर बीते दिनो को
सिसकता हूँ,
नारीयों के इस
नये कदम
से सिहर जाता हूँ


कहीं कोई गलती
ना हो जाये
इससे बचता हूँ,
नारी उत्पीडन का
केस कर दूँगी,
इस धमकी से
बहुत डरता हूँ


चारो ओर नारी-उत्थान
की चर्चा सुनता हूँ,
और अखबारों में अब
'घरेलू पति चाहिये'
का इश्तहार देखता हूँ


वो भी क्या दिन थे
आदेश जब हम
दिया करते थे,
चाय-पकौडों में
देरी होने पर
कितनी जोर से
गरजा करते थे


नारी शक्ति के
इस युग में
अब पुरुष-उत्पीडन का
केस लडता हूँ,
कटघरे में खडे
पुरुषों की सहमी हुयी
हालत को
बेबश देखता हूँ


क्या सही है
क्या गलत,
अभी कुछ नही
समझ आता है,

अब तो नारीयों से
यही है विनती-
भूल कर पुरानी बातों को

यदि वो बाँट लें
अब काम आधा-आधा,
तो होगा जीवन में
दोनों के सकून
ये है हमारा वादा


अमित कुमार सिंह

Sunday, May 06, 2007

धूम्रपान - एक कठिन काम

धूम्रपान - एक कठिन काम
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करते हैं जो धूम्रपान
की निन्दा
उनसे हूँ मै
बहुत खफा,

जान लें वो
इस कार्य कि
महत्ता को,
या फिर हो
जायें यहाँ से दफा


महान ये काम है
आसान नही ये राह है
वर्षो की साधना का
निकला ये परिणाम है


धुँयें के छल्ले बनाना
एक साँस में ही
पूरी सिगरेट पीना,
जहरीले धुँयें को
अपनें अन्दर समा कर
चेहरे पर खुशी की
झलक दिखलाना,
इसका नहीं कोई मेल है
ना ही ये हँसी और खेल है


खुद के फेफडों को
दाँव पर लगाकर
सिगरेट के कश
लगाते है
यूँ ही नहीं दुनियाँ में
साहसी हम कहलाते है


सिगरेट के धुँयें कितनों को
रोजगार दिलाते हैं,
इसकी एक कश से
कठिन से कठिन समस्या का
हल यूँ ही निकल आते हैं


बढती आबादी पर
लगाने का लगाम,
क्या नही कर रहे
हम नेक ये काम


खुद को धुँये में
जला कर
बनते हैं दुसरों के लिये
बुरे एक उदाहरण,
नहीं काम है ये साधारण


क्यूँ नाहक ही करते हो
हमे इस तरह बदनाम,
दे-दे कर गालियाँ
सुबह और शाम


अभी समझ आया या
फिर कुछ और सुनाउँ,
रूको! जरा पहले
एक सिगरेट तो जलाउँ


अमित कुमार सिंह

चेहरे पर चेहरा


चेहरे पर चेहरा
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मुखौटा पहन अपनी
पहचान छुपाये हुये है
आज का इंसान
चेहरे पर चेहरा
लगाये हुये है


समेट अपने अन्दर
दुःखों का समन्दर,
चेहरे पर हँसी
चिपकाये हुये है
आज का इंसान
चेहरे पर चेहरा
लगाये हुये है


वास्तविकता का
सामना करने से
घबराये हुये है,
आज का इंसान
चेहरे पर चेहरा
लगाये हुये है


चेहरे पर पडी
झुर्रियों को,
मेकअप में
छुपाये हुये है
आज का इंसान
चेहरे पर चेहरा
लगाये हुये है


जिसे समझा था दोस्त
निकला वो दुश्मन,
सच्चाई से कितनी दूरी
बनाये हुये है
आज का इंसान
चेहरे पर चेहरा
लगाये हुये है


हकीकत को भगा दूर
भ्रम में जीने की
आदत बनाये हुये है,
आज का इंसान
चेहरे पर चेहरा
लगाये हुये है


दिखावे के लोभ में

अपनों को ही
सताये हुये है,
आज का इंसान
चेहरे पर चेहरा
लगाये हुये है


खुद ही को
धोखा देकर,
खुश रहने के
सपने सजाये हुये है
आज का इंसान
चेहरे पर चेहरा
लगाये हुये है


चेहरे पर चिपके
इस चेहरे को देखकर
सोचता है 'किरन' ये मन-
क्यों कोमल संवेदनाओं
के मोल पर मशीनी,
हो रहा है इंसान ?

आधुनिकता की
इस दौड में,
अकेला ही तो
रह गया है वो,

जाने क्या चाहता है
आज का ये इंसान ?


अमित कुमार सिंह

Friday, April 27, 2007

मित्रता

मित्रता

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एक रिश्ता है ऐसा

बिल्कुल अनोखा हो जैसा,

स्वार्थ से अछूता,

समन्दर से गहरा हैं वो


जाति पाँति के बन्धनों से परे

धर्मों के आडम्बरों से दूर है जो

कहते हैं जिसे हम मित्रता,

क्या विश्वास है और

कितनी भरी है इसमें मधुरता


सुख मे भले ना

वो दिखलाये,

पर दुःख में हमेशा,

दोस्त काम आये


औपचारिकता से

परे है जो,

दिल के कितने करीब है वो


कह ना सके जो

बात किसी से,

दोस्तों से कह जाते हैं

कितनी सहजता से उसे


भरोसे का अटूट

आधार है जो,

मुसीबतों में खडा

चट्टान है वो


जिसकी देतें हैं

लोग मिसालें,

दोस्ती और दोस्त ही हैं

'अमित' मेरे यार,

जो हमारे जीवन रुपी

नाटक में

अदा करते हैं,

एक महत्वपूर्ण किरदार

वो भी दोस्तों!

एक नहीं अनेकों बार


अमित कुमार सिंह

Tuesday, April 24, 2007

नेता और नरक का द्वार

नेता और नरक का द्वार
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एक बार गलती से
नरक का द्वार
रह गया खुला,
सारे नेता भाग कर
स्वर्ग आने लगे,
स्वर्ग के पहरेदार
उनकी भीड को देख,
गश खाने लगे


जल्दी ही नेता
स्वर्ग में जनता
के शासन की
माँग उठाने लगे,
और इन्द्र की
कुर्सी हिलाने लगे


भोले स्वर्गवासी,
नेताओं की हाँ मे हाँ
मिलाने लगे,
और इन्द्र के सर पे
चिन्ता के बादल,
मडंराने लगे


समस्या का कैसे
निकालें समाधान,
इस पर वो
देवताओं से
बतियाने लगे


देख इन्द्र की हालत
नेता मुस्कुराने लगे,
और इन्द्र को
दावत पे बुलाने लगे


नेता,दावत में
समझौते का प्रस्ताव
पेश करने लगे,
और इन्द्र को माननें
के लिये दबाव,
डालने लगे


अन्त में कोई
रास्ता न देखकर
इन्द्र ने हाँ के लिये
गर्दन हिलायी,
और नेता लोग
एक-दूसरे को,
गले लगाने लगे


समझौते का रहस्य
जानने के लिये
लोग अकल लगाने लगे,
और नेता लोग
स्वर्ग छोड के,
जाने लगे


कविता खत्म
हो गयी,
और लोग उठ
के जाने लगे,

और क्या था -
समझौते का रहस्य ?
"जानने के लिये पढें
अगली किस्त",
के विज्ञापन
अन्तरजाँल पे
आने लगे


अमित कुमार सिंह

Monday, April 23, 2007

मै आवारा ही रह गया

मै आवारा ही रह गया
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बचपन में पढने
से ज्यादा,
खेलता ही रह गया,
और यूँ मै
आवारा ही रह गया


यौवनावस्था में

सामने रहने वाले,
चाँद के टुकडे को
देखता ही रह गया,
और यूँ मै
आवारा ही रह गया


बडे होने पर जब

कुछ कर गुजरने का
समय आया,
दोस्तों के साथ गप्पें
मारता ही रह गया,
और यूँ मै
आवारा ही रह गया


जब कोई रास्ता

नहीं बचा तो,
कलम-कागज लेकर
अपने अनुभव को
ही निचोडनें लगा,

और बातों ही बातों में
कवितायें करने लगा,
और यूँ मै
आवारा ही रह गया


अमित कुमार सिंह

Thursday, April 12, 2007

भूत

भूत
-------
कल्पना नही

हकिकत हूँ,
काया नहि
एक साया हूँ मै,
इंसानों ने किया

मुझे बदनाम,
दे दिया है
'भूत' मेरा नाम

करता हूँ कितना
मै काम,
निकल जाता हूँ
होते हि शाम

कहते हैं भूत को
होते हैं ये बुरे,
पर हिंसा,अत्याचार,
बेईमानी और भ्रष्टाचार
ये किसने हैं करे?

इंसानों ने अब
करना शुरु कर दिया
हम पर भी अत्याचार,
डराने का खुद ही करके
करने लगे हैं हमारे
पेटों पर वार

डरता हूँ अब इंसानो से
लेता हूँ अपना दिल थाम,
कहीं ये कर ना दें
मेरा भी काम तमाम

हम भूत ही सही
पर हमारा भी है
एक ईमान,
डराने के अपने काम पर
देते हैं हम पूरा ध्यान

हम ही हैं जो
कराते हैं लोगों को
इस कलियुग मे भी
ईश्वर का ध्यान,
क्या नहीं कर रहे
हम कार्य एक महान ?

अमित कुमार सिंह

Wednesday, April 04, 2007

इंतज़ार

इंतज़ार
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कल उनसे मिलन होगा,
सोच कर मन पुलकित हो रहा था,
मिलन की तैयारी में रातों की नींद
खो रहा था।

कौन सी ड्रेस पहनूं,
काली पैंट पर चेक शर्ट या,
फिर क्रीम कलर की पैंट पर,
काली शर्ट,
ये पूछ-पूछ कर दोस्तों को भी
दर्द दे रहा था।

पर यारों मिलन की चाहत में,
मैं इन सब बातों पर,
ध्यान नहीं दे रहा था।

कहीं सुबह लेट न हो जाऊँ,
देर तक कहीं निद्रा में न डूब जाऊँ,
यही सब सोच-सोच कर,
मोबाइल में अलार्म दे रहा था।

इलेक्ट्रानिक्स की चीज़ का भरोसा नहीं,
कब धोखा दे जाए,
इसलिए एक नहीं दो-तीन घड़ियों में,
अलार्म सेट कर रहा था।

आख़िरकार सभी तैयारी हुई पुरी,
मेरे और बिस्तर के बीच,
अब नहीं रही दूरी
जल्द ही मैं खो गया सपनों में

मैं सजधज के तैयार हूं,
उनसे मिलन के लिए,
बेकरार हूं,
वो लाल-नीले रंगों से सजी हुई,
मदमस्त, लहराती हुई आ रही हैं
जैसे ही वो करीब आईं,
मैं लपक कर उनसे समा गया।

मेरा अस्तित्व अब उनके ही
अंदर विलीन हो गया
वो ही अब मेरी पहचान थीं,
और मैं प्यार के पथ पर,
चलता हुआ एक,
पथिक था।

उनमें समा कर मैं,
इधर-उधर गोते खाने लगा,
कभी जागता तो,
कभी सोने लगा।

प्यार उन्होंने इतना दिया,
कि भूख-प्यास का भी ध्यान
अब नहीं रहा
इंतज़ार था तो बस इतना,
कि मंज़िल तक कब पहुँचूँगा
परमानंद की उस ऊंचाई,
को कब पाऊँगा।

तभी अचानक ज़ोर-ज़ोर से,
आवाज़ें आने लगीं,
चौंक कर मैं उठ बैठा,
सपनों का महल
पल भर में ही टूट गया।

कहीं भूकंप तो नहीं आया,
उलटे-सीधे ख्याल मैं
मन में ले आया।

पर फिर मैंने पाया,
मेरी घड़ियों ने
नहीं दिया था धोखा
अपना फ़र्ज़ निभाने का
पाया था उन्होंने ये
सुनहरा मौका।

सपनों से बाहर आने का
समय आ चुका है,
फिर मैंने ये सोचा।

तुरत-फुरत करके तैयारी,
निकाली दोस्तों ने
मेरी सवारी।

बैठा कर ऑटो में,
दी उन्होंने बिदाई
ऑटो वाले ने भी तब,
नब्बे स्र्पया लूँगा की,
अपनी मांग सुनाई।

नब्बे क्या मैं सौ दूँगा,
अगर वक्त पर मैं पहुँचूँगा,
मैंने भी अपनी ये,
इच्छा उसे जताई।

पता नहीं ये किसकी
चाहत का था नतीजा
ऑटो वाले के अधिक पैसे पाने की,
या फिर मेरी उनकी दीदार के,
मैं वक्त से
पहले पहुंचा था।

दिल में उमंगें थीं,
मन में था
बड़ा सुकून,
जल्द ही मिलन होगा,
इसका छाया हुआ था जुनून।

मगर दोस्तों प्यार की राह
है नहीं इतनी आसान
अब शुरू होता है इंतज़ार
का लंबा सफ़र।

याद आने लगे
प्रेमिकाओं के नखरे
इनकी इंतजार करवाने
वाली फ़ितरतें।

खुद को कोसता
क्यों आया इतना वक्त पर,
दीवाना क्यों बन गया,
मिलन की इस चाहत में।

कहीं फँस गई होगी,
राह में कोई मुसीबत आ गई होगी
ये सोच-सोच कर,
अपने दुखी मन को
समझाया।

मेरी वाली अच्छी है
वो धोखा नहीं देगी,
और वक्त पर आकर,
मुझे अपने आगोश में लेगी।

मन में था बस इतना सा ख्वाब,
बेचैन दिल से निकल रही थी आह!
ये इंतज़ार उफ़ ये इंतजार!
तड़प-तड़प के
आ रही थी,
चारों ओर से ये आवाज़।


लंबे इंतज़ार के बाद,
वो देखो!
सीटी बजाते हुए
आ रही थी।

उदास चेहरों पर
खुशी की लहर दौड़ती
जी हां दोस्तों ये!
ये!
कोई मेरी महबूबा नहीं
लौह पथ गामिनी थी,
भारतीय रेल की
खोई हुई एक निशानी थी,
कभी समय पर न आने की
उनकी कहानी थी।

आप ये जो सुन रहे थे,
या यों कहूं,
सुन-सुन कर बोर हो रहे थे,
वो इंतज़ार के दर्द से,
बेहाल एक यात्री की
दर्द भरी कहानी,
उसकी ही जुबानी थी।


अमित कुमार सिंह

कौन महान

कौन महान
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एक दिन मैं देर रात को
ऑफ़िस से आ रहा था
या यों कहिए
घर की ओर जा रहा था
थका-हारा बेहाल
और परेशान
तभी मैं हो गया हैरान
क्योंकि सामने से आ रहे थे
श्रीमान, ज्ञान से अंजान
गधे जी महान


मुझे देखकर वो
थोड़ा मुसकाए,शरमाए
और फिर थोड़े से आश्चर्य के
साथ उन्होंने ये वचन सुनाए,
तुम कैसे हो इंसान?
रात में भी करते हो काम?

मैं बोला श्रीमान
आप हैं मुझसे अंजान
करता हूं मैं काम महान
लोग देते हैं मुझे
आदर और सम्मान
बंदा है एक कंप्यूटर इंजीनियर
'अमित' है मेरा नाम।


यह सुनकर गधे जी महाराज
हो गए थोड़ा चुप
मैंने सोचा मेरे प्रभाव से
ये गए हैं झुक
पर मेरी नासमझी पर
वो थोड़ा मुसकाए
और मुस्कराते हुए बोले
मेरा बोझा भी तू ही ले ले
और मुझे जाने दे

मैंने पूछा -
आपने कहा क्यों ऐसा?
क्या मैं लगता हूं आप जैसा?
इस पर वो बोले
सुना है दुनिया में आ गया है
कोई हमसे भी श्रेष्ठ
जिसे नहीं चाहिए कोई रेस्ट
करता है जो दिन-रात काम-काम
और सिर्फ काम
बोझा ढोने को भी
है वो तैयार
दुनिया जिस पर
करती है एतबार
जानना चाहते हो वो कौन है?
मेरे सरकार!

ये वो हैं जिनकी वजह से
हम गधों की जमात में
फैला है बेरोज़गारी का डर
नौकरी कब चली जाए
इसकी लगी रहती है फ़िक्र

सच ही है भगवन!
तेरी लीला अपरंपार
सदियों से सताए हुए
हम गधों पर तेरा है ये उपकार
करते हैं हम अपनी बिरादरी की
इस नई नस्ल को झुक कर नमस्कार
इसने दिया हमें ये ज्ञान
ये अभिमान
कि, कोई तो है
जिसे देखकर हम भी
कह सकते हैं देखो कितना
गधे की तरह करता है काम
ये और कोई नहीं हो सकता
ये है वो इंसान
दुनिया जिसे कहती है-
कंप्यूटर इंजीनियर महान।


यह सुनकर मैं भूल गया
अपनी सारी अकड़ और शान
और किया गधे जी
महाराज को प्रणाम।


चल पड़ा घर की ओर
विचारों में डूबा हुआ
किसने दिया किसे ज्ञान?
मैं? या वह गधा?
दोनों में से
कौन है महान?


अमित कुमार सिंह

Tuesday, April 03, 2007

परिवर्तन

परिवर्तन
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नया दौर आया,
लेकर नया जमाना
परिवर्तन का मंत्र जपता
हर कोई बन गया है
इसका दीवाना।

परिवर्तन की इस
आंधी में,
बदल गयी है
कविताओं की
भी बानी,
दीर्घ से लघु
में सिमटने की
महत्ता अब
इसने है पहचानी।

समय का है
लोगों के पास अभाव
तीन-चार पंक्तियों में
दे सको यदि पूरी कविता
का भाव,
तो मेरे पास आओ
अन्यथा इसे लेकर
यहाँ से चले जाओ।

और जाते-जाते
मेरा ये सबक अपनाओ-
लिखना नहीं रहा
अब तुम्हारे बस का रोग
पेट पालने के लिए
करो कोई और उद्योग।

सुन के ये
पावन वचन
सिहर गया
मेरा तन बदन
और अपनी जीविका
चलाने के लिए
करने लगा मैं
कविताओं की जड़ों
पर वार।

ओढ़ लबादा परिवर्तनशीलता का
करने लगा मैं भी,
कविताओं की बोनसाई तैयार।

अमित कुमार सिंह

Monday, April 02, 2007

यमराज का इस्तीफा

यमराज का इस्तीफा
---------------------

एक दिन
यमदेव ने दे दिया
अपना इस्तीफा।

मच गया हाहाकार
बिगड़ गया सब
संतुलन,
करने के लिए
स्थिति का आकलन,
इन्द्र देव ने देवताओं
की आपात सभा
बुलाई
और फिर यमराज
को कॉल लगाई।

'डायल किया गया
नंबर कृपया जाँच लें'
कि आवाज तब सुनाई।

नये-नये ऑफ़र
देखकर नम्बर बदलने की
यमराज की इस आदत पर
इन्द्रदेव को खुन्दक आई,
पर मामले की नाजुकता

को देखकर,
मन की बात उन्होने
मन में ही दबाई।

किसी तरह यमराज
का नया नंबर मिला,
फिर से फोन
लगाया गया तो
'तुझसे है मेरा नाता
पुराना कोई' का
मोबाईल ने
कॉलर टयून सुनाया।

सुन-सुन कर ये
सब बोर हो गये
ऐसा लगा शायद
यमराज जी सो गये।

तहकीकात करने पर
पता लगा,
यमदेव पृथ्वीलोक
में रोमिंग पे हैं,
शायद इसलिए,
नहीं दे रहे हैं
हमारी कॉल पे ध्यान,
क्योंकि बिल भरने
में निकल जाती है
उनकी भी जान।

अन्त में किसी
तरह यमराज
हुये इन्द्र के दरबार
में पेश,
इन्द्रदेव ने तब
पूछा-यम
क्या है ये
इस्तीफे का केस?

यमराज जी तब
मुँह खोले
और बोले-
हे इंद्रदेव!

'मल्टीप्लैक्स' में
जब भी जाता हूँ,
'भैंसे' की पार्किंग
न होने की वजह से
बिन फिल्म देखे,
ही लौट के आता हूँ।

'बरिस्ता' और 'मैकडोन्लड
'वाले तो देखते ही देखते
इज्जत उतार
देते हैं और
सबके सामने ही
ढ़ाबे में जाकर
खाने-की सलाह
दे देते हैं।

मौत के अपने
काम पर जब
पृथ्वीलोक जाता हूँ
'भैंसे' पर मुझे
देखकर पृथ्वीवासी
भी हँसते हैं
और कार न होने
के ताने कसते हैं।

भैंसे पर बैठे-बैठे
झटके बड़े रहे हैं
वायुमार्ग में भी
अब ट्रैफिक बढ़ रहे हैं।

रफ्तार की इस दुनिया
का मैं भैंसे से
कैसे करूँगा पीछा?
आप कुछ समझ रहे हो
या कुछ और दूँ शिक्षा।

और तो और,
देखोरम्भा के पास है
'टोयटा'
और उर्वशी को है
आपने 'एसेन्ट' दिया,
फिर मेरे साथ
ये अन्याय क्यों किया?
हे इन्द्रदेव!

मेरे इस दु:ख को
समझो और
चार पहिए की
जगह चार पैरों वाला
दिया है कहकर
अब मुझे न बहलाओ,
और जल्दी से
'मर्सिडीज़' मुझेदिलाओ,

वरना मेरा इस्तीफा
अपने साथ
ही लेकर जाओ,
और मौत का
ये काम
अब किसी और से
करवाओ।

अमित कुमार सिंह

Friday, March 30, 2007

ट्रैफिक जाम

ट्रैफिक जाम
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रोज सुबह हो
या शाम चौराहों पे
दिखाई देता है
ट्रैफिक जाम

किसी को हँसाती तो
किसी को रुलाती है,
जो खाली हैं उनका
समय व्यतीत कराती है,
काम पे जाने वाला लेता है
तब ईश्वर का नाम,
देख लेता है जब वो
ट्रैफिक जाम

कोई है सुट-बूट में
तो कोई है फटेहाल,
कोई है पैदल
तो कोई है गाडी में सवार,
बस में खडा है
मध्यवर्गी ,
कैसा है इस ट्रैफिक का
बुरा हाल

फैले हुये है दो हॉथ
अन्तर बस इतना है,
एक कि आँखो में दीनता
तो दूजा गौरव से
भरपूर है,
क्या ट्रैफिक जाम
यहीं से शुरु है

दोनों के गालों पे है
पानीं की कुछ बूँदे,
एक सुखा रहा है
चला कर ए सी,
तो मिटा रहा है इसे
कोई खा कर रुखी सूखी,
अरे भाई आखिर कब
खत्म होगा ये
ट्रैफिक जाम

एक और द्रश्य
दिखायी पड रहा है,
लगता तो कोई
मज़नू का भाई है
और लैला,
ओफ! इस ट्रैफिक
जाम को क्या अभी
खत्म होना था ?
वो हॅसीन शंमा अब
पीछे छूट गया था

-अमित कुमार सिंह

Friday, March 23, 2007

मटियावो ना..

मटियावो ना..
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मटियावो ना का
मंतरजब से है जाना,
भोलू जी के जीवन में
आया नया तराना

पहले लगे रहते थे
आफिस में देर तक,
करने में बासॅ को खुश
अब सोंचते हैं क्या फायदा,
चलो मटियावो ना
घर अब जल्दी जाओ ना

देख शोरुम में समानों को
जब जेब पर पडा जोर,
मटियावो ना के शोर ने
कर दिया भोलू जी
को भाव-विभोर

एक बार चल रहि थी
गरमा गरम बहस,
हो रहे थे बडे-बडे दावे,
पीछे हटने को कोई
न था तैयार,
उलझ गये थे
जब सारे तार,
तब भोलू जी ने
कि एक शुरुवात,
फिर प्रसन्न मन
लगाने लगे सभी,
मटियावो ना का
नारा बार बार

मंहगा टिकट लेकर
भोलू जी एक बार
गये मल्टिप्लेक्स में,
दिल में था बडा जोश,
मगर फिल्म नें किया बोर
हुआ उन्हे बडा अफसोस,
तब मटियवो ना कहकर
किया उन्होने सन्तोष

पढ कर जब ये कविता
पाठकों ने नही दिया
कोई टिप्पणी,
कवि के दिल में
हुयी 'अमित' बेचैनी,
आने लगा एक
'स्नेह' ख्याल,
चलो छोडों ना ...
अरे मटियावो ना ...

--अमित कुमार सिंह

Saturday, March 03, 2007

होली की बोली

जिंस पैंट और
टी शर्ट में,
घूम रही थी एक गोरी,
नाम पूछा तो
बोलती है,
है वो होली |

मैंने पूछा, तो बताओ
कहाँ है रंग,
कहाँ है गुलाल?
सुन ये वो हँस पडी,
और बोली-
नीली है जिंस
पीली है ये टी शर्ट,
सुर्ख हैं मेरे गाल,
क्या नहीं दिखते तुम्हे
रंग ये लाल ?


अरे वो नासमझ
इक्किसवीं सदी है ये
समय का है अभाव
रंगो का ऊचाँ है भाव
पर्यावरण प्रदुषण मुक्ति
आदोंलन का है ये प्रभाव,
केबल के रस्ते
अब हो रहा है
रंगो का बहाव,
इठला कर होली ये बोली,
खेल रहे हैं लोग अब केवल
साईबर होली |

इस आधुनिक युग में
दुरियाँ तो गयी हैं घट,
पर फासँला दिलों
का बढ गया है अब,

रफ्तार की इस दुनियाँ में
होली अपना महत्व खोने लगी,
और सोच अपने भविष्य को,
होली की आँखे नम होने लगीं ||

अमित कुमार सिंह

होली है

रंगीन है शमां
रंगीन है मौसम
जिधर देखो
रंग बिरंगा है माहौल,
चारो ओर मादकता
सी है छायी
अरे- क्या होली है आयी ?

चचंल,इठला रही
अपना सतरंगी
दुपट्टा लहरा रही,
होली,हमे हुडदंग के लिये
बुला रही |


मस्ती की इस बयार में
चेहरे तो हो गये हैं
मलिन और रंगीन,
पर अन्तर्मन हो गये हैं
कितने सुन्दर और हसीन|

बाँह पसारे कर रहे हैं
लोग परस्पर आलिंगन,

मिट गये हैं बैर भाव
मिट गयी है दूरियाँ,

बज रहे हैं मगंल गीत
बजने लगी है संगीत की
मधुर स्वर लहरियाँ |

देख इस प्रेम मिलन को
नेत्र हो गये सजल,
सोचने लगा ये
बावरा 'अमित' दिल
काश!रोज होती होली,
तो खुशियों से खाली
न होती किसी की भी झोली ||


अमित कुमार सिंह

Friday, February 16, 2007

मित्रता

मित्रता
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एक रिश्ता है ऐसा
बिल्कुल अनोखा हो जैसा,
स्वार्थ से अछूता,
समन्दर से गहरा हैं वो |

जाति पाँति के बन्धनों से परे
धर्मों के आडम्बरों से दूर है जो
कहते हैं जिसे हम मित्रता,
क्या विश्वास है और कितनी
भरी है इसमें मधुरता |

सुख मे भले ना
वो दिखलाये,
पर दुःख में हमेशा,
दोस्त काम आये |

औपचारिकता से
परे है जो,
दिल के कितने
करीब है वो |

कह ना सके जो
बात किसी से,
दोस्तों से कह जाते हैं
कितनी सहजता से उसे|

भरोसे का अटूट
आधार है जो,
मुसीबतों में खडा
चट्टान है वो |

जिसकी देतें हैं
लोग मिसालें,
दोस्ती और दोस्त ही हैं
'अमित' मेरे यार,
जो हमारे जीवन रुपी नाटक में
अदा करते हैं,
एक महत्वपूर्ण किरदार
वो भी दोस्तों!
एक नहीं अनेकों बार ||

अमित कुमार सिंह

Monday, February 12, 2007

वेलेन्टाइन डे

वेलेन्टाइन डे
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चौदह फरवरी क्या आया
प्यार के फूल खिल गये,
मचलने लगे युवाओं के दिल
और पुष्पों का आदान प्रदान
होने लगा |

पुष्पों के रंग
व्यक्त करने लगे
भावनाओं को
शब्द हो गयें हैं मौन|

दिल की कोमल संवेदना
फूलों की पंखुडियों मे समा गयीं,
और बिन ध्वनि
सब कुछ कह गयीं |

बहने लगी चहुं ओर
प्रेम की मादक पवन,
होने लगा दिलों मे
मधुर मधुर स्पन्दन |

स्वीकार कर प्रेम का
ये नाजुक बन्धन,
करने लगे लोग 'वेलेन्टाइन डे' का
जोर शोर से अभिनन्दन ||

अमित कुमार सिंह

Monday, February 05, 2007

जिन्दगी ऐसे जियो

जिन्दगी ऐसे जियो
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चंचल,लहराती हुयी
हवा की तरह स्वच्छन्द
बच्चों की तरह मासूम,

कोयल सी गुनगुनाती
दिल को छू जाने वाली,

हॅसती खिलखिलाती
सदा मुस्कुराती,

जिन्दादिल, दोस्तों की दोस्त
कहते हैं जिसे हम 'जिन्दगी',

मित्र जियो तो बस
जिन्दगी की तरह खुल के जियो,
गम के सायों को परे कर
हॅसते खिलखिलाते हुये जियो

किरन सिंह

लाईफ्



फुलों से हॅसते खिलखिलाते हो तुम,
कोयल से गुनगुनाते हो तुम,
दोस्तों की दोस्त,
'लाईफ' कहलाते हो तुम |

अरे ओ मेरे दोस्त 'लाईफ'(तोम्बिसना)
तुम कभी न बदलना,
सदा यूँ ही गुनगुनाते,
हॅसते और मुस्कुराते रहना ||

अमित कुमार सिंह