माटी की गंध
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कभी अच्छी
तॊ कभी बुरी
लगती है
माटी की गन्ध |
लगती है
ऎक सुन्दर सी
सुगन्ध,
अगर हॊ इनमॆ
खलियानॊ,बगानॊ
कॆ रंग |
बन जाती है
यही ऎक
बुरी गन्ध,
रहती है जब
यॆ नालॊं
कॆ संग |
गरीबॊ कॆ झॊपडॊ मॆ
हॊती है बॆमॊल,
रईसॊ कॆ आंगन मॆ
हॊ जाती है यॆ अनमॊल |
बंजर है तॊ
विराना ही है
इसका साथी,
उपजाउ हॊकर
बन जायॆ यॆ
किसानॊ कि थाती |
माटी का यॆ रंग
हमॆ यॆ सिखलायॆ,
काम अगर
दूसरॊ कॆ आयॆ,
अच्छी संगत
अगर अपनायॆ,
तॊ फैलॆगी
तुम्हारी गंध
बनकॆ ऎक सुगंध,
और मिटनॆ
सॆ पहलॆ,
माटी मॆ मिलने
सॆ पहलॆ,
जान जायॆगा
तॆरा यॆ तन
जीवन का
सही रंग ||
अमित कुमार सिह
Thursday, November 23, 2006
अगरॆज बिलार
अगरॆज बिलार
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चलत चलत सरकी पॆ
दॆखा भवा ऎक
बिलार,
करत रहा जॆकॆ
ऒकरा मालिक
बडा दुलार |
बुलाया मालिक नॆ ऒकॆ
कहा अगरॆजी मॆ
'कम आन पूसी',
बिलार उछरी
और आ गयी
ऒकरा गॊदी मा
खुसी खुसी |
हम सॊचा हमहु
बुलाई ऎक बार
तनी दॆखी हमरॆ पास
आवत ह् कि नाही,
हम कहॆ
आ जा पूसी पूसी
उ लगी हमका घूरनॆ,
हमका लगा की
भवा का गलत
हॊ गवा ?
कछु गलत त नाहि बॊला
फिर ई का हॊ गवा |
मन मॆ फिर ई सॊचा
जौउन इकरा मालिक बॊला
हमहु अगर उहॆ बॊली
तब का हॊई ?
सॊच कॆ ई तब
हम कहा
'कम आन पूसी',
उ बिलर उछ्रर कॆ
हमरा पास आ गई|
तब हम ई
जानॆ भवा
ई त ह
अगरॆज बिलार
आपन दॆशी ना जानॆ,
काहॆ न हॊ लॊगन
ह् इ लन्दन का किस्सा,
इहा कुकुरॊ बिलार्
अगरॆजी है जानॆ |
सॊ भवा 'अमित',
तू औउर तुमहरा भॊजपुरी बिरादरी
हॊ जा अब सावधान
औउर करा
जमा कॆ हॊ लॊगन,
अईसन परयास
कि परदॆशी बिलारॊ कॆ
आवॆ तॊहार
भाषा रास ||
अमित कुमार सिह
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चलत चलत सरकी पॆ
दॆखा भवा ऎक
बिलार,
करत रहा जॆकॆ
ऒकरा मालिक
बडा दुलार |
बुलाया मालिक नॆ ऒकॆ
कहा अगरॆजी मॆ
'कम आन पूसी',
बिलार उछरी
और आ गयी
ऒकरा गॊदी मा
खुसी खुसी |
हम सॊचा हमहु
बुलाई ऎक बार
तनी दॆखी हमरॆ पास
आवत ह् कि नाही,
हम कहॆ
आ जा पूसी पूसी
उ लगी हमका घूरनॆ,
हमका लगा की
भवा का गलत
हॊ गवा ?
कछु गलत त नाहि बॊला
फिर ई का हॊ गवा |
मन मॆ फिर ई सॊचा
जौउन इकरा मालिक बॊला
हमहु अगर उहॆ बॊली
तब का हॊई ?
सॊच कॆ ई तब
हम कहा
'कम आन पूसी',
उ बिलर उछ्रर कॆ
हमरा पास आ गई|
तब हम ई
जानॆ भवा
ई त ह
अगरॆज बिलार
आपन दॆशी ना जानॆ,
काहॆ न हॊ लॊगन
ह् इ लन्दन का किस्सा,
इहा कुकुरॊ बिलार्
अगरॆजी है जानॆ |
सॊ भवा 'अमित',
तू औउर तुमहरा भॊजपुरी बिरादरी
हॊ जा अब सावधान
औउर करा
जमा कॆ हॊ लॊगन,
अईसन परयास
कि परदॆशी बिलारॊ कॆ
आवॆ तॊहार
भाषा रास ||
अमित कुमार सिह
Tuesday, November 21, 2006
Tuesday, November 14, 2006

दीवाना रवि
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गॊरी गॊरी
लडकियॊ का
दिवाना लन्दन की
सडकॊ पर
मन्डराता , ऎक दीवाना
नाम जिसका रवि,
मित्र था उसका यॆ कवि
अग्रॆजॊ सॆ
प्रभावित
उनकी
रहन सहन का
कायल था वॊ,
कॊई गॊरी हॊ
उसकि भी दिवानी
दिन रात सॊचता
रहता था यही जॊ
रवि बाबू बनतॆ तॊ
थॆ बडॆ समझदार,
पर दिल कॆ थॆवॊ उदार ,
झटकॆ तॊ खायॆ
अनॆकॊ बार,
पर अपनॆ भॊलॆपन सॆ
हमॆशा करतॆ थॆ
वॊ ईन्कार
बीयर कॊ दारु
कह्कर पीतॆ थॆ
और् नशा न हॊनॆ
पॆ भी झूमतॆ थॆ
हिन्दी फिल्मॊ की
हसी उडातॆ,
अग्रॆजी फिल्मॊ की
करतॆ वॊ खूब,
वकालत थॆ,
विरॊध करनॆ पर
दुश्मन की तरह
नजर वॊ आतॆ थॆ
गॊरीयॊ सॆ आखॆ चार
करनॆ की हसरतॆ लियॆ हुयॆ
आज भी लन्दन की
सडकॊ पर रवि बाबु
मडरा रहॆ है
और् पुछनॆ पर
'अमित'यॆ शरमा रहॆ है
अमित कुमार सिह
Monday, November 13, 2006
दीप प्रकाश
दीप प्रकाश
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दीवाली का दिन था
और मै था
अपनॊ सॆ दूर
लगता था
शायद खुदा कॊ
यही है मन्जूर
जला दीपक कॊ
याद कर रहा था
पुरानी यादॊ कॊ,
उन झिलमिलाति
रॊशनी और पठाकॊ
कॆ शॊर कॊ,
दॊस्तॊ कॆ ठहाकॊ
और बडॊ कॆ
स्नॆह् कॊ
तभी अचानक
अधॆरा छा गया,
दीपक बुझ गया था
और मै फिर सॆ
तन्हा हॊ गया था
पल भर मॆ ही
प्रकाश सॆ मै
अन्धकार मॆ आ गया,
और जीवन की
इस छडभन्गुरता का
ठन्डा सा अहसास
पा गया
दीपक बुझ गया
पर मुझॆ राह दिखा गया,
निस्वार्थ भाव सॆ
कर्म करतॆ हुयॆ,
रॊशन करॊ इस सन्सार कॊ,
मिटा कर भॆद्
अपनॆ परायॆ,
दॆश परदॆश का,
निश दिन
परॊपकार तुम करॊ
अमित कुमार सिह्
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दीवाली का दिन था
और मै था
अपनॊ सॆ दूर
लगता था
शायद खुदा कॊ
यही है मन्जूर
जला दीपक कॊ
याद कर रहा था
पुरानी यादॊ कॊ,
उन झिलमिलाति
रॊशनी और पठाकॊ
कॆ शॊर कॊ,
दॊस्तॊ कॆ ठहाकॊ
और बडॊ कॆ
स्नॆह् कॊ
तभी अचानक
अधॆरा छा गया,
दीपक बुझ गया था
और मै फिर सॆ
तन्हा हॊ गया था
पल भर मॆ ही
प्रकाश सॆ मै
अन्धकार मॆ आ गया,
और जीवन की
इस छडभन्गुरता का
ठन्डा सा अहसास
पा गया
दीपक बुझ गया
पर मुझॆ राह दिखा गया,
निस्वार्थ भाव सॆ
कर्म करतॆ हुयॆ,
रॊशन करॊ इस सन्सार कॊ,
मिटा कर भॆद्
अपनॆ परायॆ,
दॆश परदॆश का,
निश दिन
परॊपकार तुम करॊ
अमित कुमार सिह्
Wednesday, November 08, 2006
परदेसी सबॆरा
परदेसी सबॆरा
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सुबह् सुबह् आखॆ खुली
हॊ गया था सबॆरा
मन मॆ जगा ऎक कौतुहल
कैसा हॊगा यॆ
परदेसी सबॆरा
बात है उन दिनॊ कि
था जब मै लन्दन मॆ
लपक कर उठा मै
खॊल डाली सारी
खिडकिया ,
भर गया था अब
कमरॆ मॆ उजाला
रवि कि किरनॊ नॆ
अब मुझ पर था
नजर डाला
ध्यान सॆ दॆखा
तॊ पाया नही है
अन्तर उजालॆ की किरनॊ मॆ
सबॆरॆ की ताज़गी मॆ
या फिर बहती सुबह
की ठन्डी हवाऒ मॆ ,
पाया था मैनॆ उनमॆ भी
अपनॆपन का ऐहसास
लगता था जैसॆ कॊई
अपना हॊ बिल्कुल पास
मैनॆ तब यॆ जाना
अलग कर दू
अगर भौतिकता की
चादर कॊ तॊ
पाता हू एक ही
है सबॆरा ,
चाहॆ हॊ वॊ लन्दन
या फिर हॊ प्यारा
दॆश मॆरा
अमित कुमार सिह
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