परदेसी सबॆरा
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सुबह् सुबह् आखॆ खुली
हॊ गया था सबॆरा
मन मॆ जगा ऎक कौतुहल
कैसा हॊगा यॆ
परदेसी सबॆरा
बात है उन दिनॊ कि
था जब मै लन्दन मॆ
लपक कर उठा मै
खॊल डाली सारी
खिडकिया ,
भर गया था अब
कमरॆ मॆ उजाला
रवि कि किरनॊ नॆ
अब मुझ पर था
नजर डाला
ध्यान सॆ दॆखा
तॊ पाया नही है
अन्तर उजालॆ की किरनॊ मॆ
सबॆरॆ की ताज़गी मॆ
या फिर बहती सुबह
की ठन्डी हवाऒ मॆ ,
पाया था मैनॆ उनमॆ भी
अपनॆपन का ऐहसास
लगता था जैसॆ कॊई
अपना हॊ बिल्कुल पास
मैनॆ तब यॆ जाना
अलग कर दू
अगर भौतिकता की
चादर कॊ तॊ
पाता हू एक ही
है सबॆरा ,
चाहॆ हॊ वॊ लन्दन
या फिर हॊ प्यारा
दॆश मॆरा
अमित कुमार सिह
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